कैसा होता है ‘सत्संग’ ? और किसे कहते हैं ‘सन्त’ ?

भगवान् श्रीकृष्ण जी की वाणी


      ‘जितना आसानी से ‘मैं’ सत्संग से जानने-समझने प्राप्त करने-पहचानने में आता हूँ, उतना आसानी से जप, तप, दान, व्रत, वेदाध्ययन, शास्त्राध्ययन, तीर्थाटन, योग, सांख्य, यज्ञ, क्रिया आदि किसी भी चीज से जानने-समझने-प्राप्त करने-पहचानने में नहीं आता । इतना ही नहीं सच पूछो तो जिस किसी ने भी जब कभी भी और जहाँ कहीं भी जाना-देखा-समझा-पहचाना और प्राप्त किया है। उस उसने भी उस-उस समय में भी, उस-उस स्थान पर  ही एकमात्र सत्संग से ही प्राप्त किया, जाना, देखा-समझा-पहचाना तत्पश्चात् मेरे प्रति शरणागत होता हुआ मेरे तत्त्वरूप में प्रवेश पाता हुआ मेरे परमधाम को प्राप्त करता है । सत्संग के सिवाय कभी भी न तो मुझे किसी ने प्राप्त किया है और न तो कभी भी कोई प्राप्त कर ही सकता है ’’ 
श्रीमद्भागवद् महापुराण से