‘अन्तेन सहितः सः सन्तः ।’

‘अन्तेन सहितः सः सन्तः ।’
     सन्त जो वास्तव में अन्तिम ‘सत्य’ के साथ हो, अन्तिम ‘सत्य’ के साथ सदा-सर्वदा ही रह रहा हो-- सन्त वास्तव में वही है । ‘‘वासुदेवः सर्वं इति’’ जिसका सब कुछ भगवान् ही हो । भीतर-बाहर, नीचे-ऊपर, पीछे-आगे-- जिस शरीर विशेष का सबकुछ भगवान् ही हो, परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म ही हो, वास्तव में वही ‘सच्चा सन्त’ कहलाने का हकदार है। भगवान् को छोड़कर, परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म को छोड़कर जिसका कुछ भी संसार में हो, वास्तव में वह सन्त की परिभाषा में नहीं आ सकता ।’’ सन्तों की बड़ी विचित्र महिमा     है । वास्तव में सन्त मिल जाय तो भगवान् मिलने में देर नहीं होता है । भगवान् मिलने में  देर इसलिए होता है कि आपको सच्चा सन्त नहीं मिलता है । सच्चा सन्त मिल जाए फिर भगवान् के मिलने में देर नहीं । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सृष्टि का आदि-अन्त का रहस्य जनाने वाला ही सन्त है यानी सम्पूर्ण(संसार-शरीर-जीव-ईश्वर और परमेश्वर) की सम्पूर्णतया (शिक्षा-स्वाध्याय-अध्यात्म और तत्त्वज्ञान) को जनाने वाला यानी सीधे खुदा-गाॅड-भगवान् को जनाने-दिखाने-परख-पहचान कराने वाला ही सन्त होता है ।
       सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! अब आप सभी के बीच ‘सत्य और सन्त महिमा’ थोड़ा सुनाऊँ -- दो शब्द । ‘सत्य’ जो है वह वास्तव में क्या है ? जो सदा-सर्वदा एकरूप हो, अपरिवर्तनशील हो, वास्तव में वही ‘सत्य’ है । एकमात्र वही ‘सत्य’ की परिभाषा में आएगा। जो सदा-सर्वदा एकरूप हो, जिसमें कभी किसी भी परिस्थिति में किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन न हो, वही सदा-सर्वदा ‘सत्य’ है और ‘सत्य’ के इस परिभाषा पर केवल एकमेव एक परमात्मा- परमेश्वर-परमब्रह्म-खुदा-गाॅड- भगवान्-अरिहन्त- अकालपुरुष-सत्पुरुष-परमपुरुष ही हैं जो ‘सत्य’ के इस परिभाषा पर खरा उतरते हैं । आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म भी ‘सत्य’ के इस परिभाषा में खरा नहीं उतरते यानी आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म भी ‘सत्य’ के परिभाषा में पूर्णतः सत्यापित-प्रमाणित नहीं हो पाते । 
      इस बात को आप जानेंगे तब, जब आपको आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म का साक्षात्कार कराया जाएगा, दर्शन कराया जाएगा । एक तरफ ‘सत्य’ की परिभाषा भी जनाई-दिखाई जायेगी तो आप तुलना कर लीजियेगा कि यह आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म भी परिवर्तनशील जैसे लगता है कि नहीं । यह आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म भी माया के दोष-गुण के अन्तर्गत आ जाता है। इस पर भी माया के दोष-गुण का आवरण चढ़ जाता है । यह भी माया के दोष-गुण से आवृत हो करके जीव रूप में परिवर्तित हो जाता है । इसीलिये  आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म को भी सत्य के परिभाषा में खरा उतरने वाला नहीं कहा जायेगा । बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की ऽऽऽ जय !
     कितना हास्यास्पद और घोर मिथ्यापूर्ण यह अज्ञान है ! ‘‘सबमें भगवान है -- यह मूर्खतापूर्ण ज्ञान की पहचान है । यह मिथ्या ज्ञान की पहचान है । सबमें भगवान है--बिल्कुल ही मिथ्याज्ञान की पहचान है ।’’ आप सभी बन्धुजन यहाँ पर इसी अन्तर को जानने के लिये आये हैं और इसे देखने के लिए आए हैं कि भगवान कण-कण में क्या, धरती पर ही नहीं रहता है, धरती पर ही नहीं। वह युग-युग में अवतरित होता है युग-युग में । एक युग का जाना और दूसरे युग का आना अर्थात् दोनों युगों का जब सन्धि बेला होता है तो उसी सन्धि बेला में भगवान् का अवतरण होता है । केवल सन्धि बेला में भगवान् भू-मण्डल पर अवतरित होता है । उसके आगे-पीछे कभी भी भगवान् धरती पर नहीं रहता । भगवान् कोई गुड्डा-गुड्डी का खेल नहीं, भगवान कोई बैसाख-जेठ का धूप नहीं। भगवान् कोई इतना सामान्य विषय-वस्तु नहीं कि जो मन करे, वही घोषित कर दीजिए --उसको जैसा मन करे वैसा ही घोषित कर दीजिए । भगवान् एक सर्वोच्च शक्ति-सत्ता है । भगवान् परम शक्ति-सत्ता है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों का मालिक होता है वह। भगवान् के एक अंश मात्र से इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है । भगवान् के दूसरे अंश मात्र से इसका संचालन अथवा इसकी स्थिति है । इसकी उत्पत्ति, स्थिति और लय रूपी तीनों शक्तियाँ भी भगवान् में ही होती रहती हैं । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उस परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप जो भगवत्तत्त्वम् है, वह जो अद्वैत्तत्त्वम् है,  उसी ‘तत्त्व’ का एक अंश मात्र है। अंश है ये सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और आप ऐसे ही देखेंगे । हम यह कहने के लिये आपके बीच नहीं आये हैं, हम मात्र सुनाने के लिए नहीं आये हैं, हम आपको दिखाने के लिए आये हैं। किसी जादू-मन्तर की तरह से दिखाने के लिए नहीं, एक सिस्टम से--एक पद्धति से जनाते-दिखाते हुए । कौन सी पद्धति ? वेद, उपनिषद्, पुराण, रामायण, गीता, बाइबिल, र्कुआन, गुरुग्रन्थ साहब अथवा जैन-बौद्ध--किसी भी सम्प्रदाय-धर्म के मान्यता प्राप्त सद्ग्रन्थ के प्रमाणों से     प्रमाणित । कुछ भी इसमें मनमाना नहीं, हर चीजें प्रमाणों से प्रमाणित हैं । मात्र दर्शन नहीं, अनुभूति और बोध के अन्तर्गत भी प्राप्त हैं । हम आप सभी के बीच जनाने के लिए आये हैं कि ये सद्ग्रन्थ कोई कल्पना की किताबें नहीं हैं--काल्पनिक किताबें नहीं हैं। ये जो सद्ग्रन्थ हैं कल्पना प्रधान या काल्पनिक किताबें नहीं हैं । ये सत्य प्रधान सद्ग्रन्थ हैं । किसी भी विज्ञान की किताब से अधिक प्रमाणित और सत्यापित हैं । ये सुनिश्चित सिद्धान्त और प्रयोग पर आधारित हैं । ये सद्ग्रन्थ जो हैं, बिल्कुल प्रायौगिक हैं प्रायौगिक । काल्पनिक तो ये हैं ही नहीं, मात्र सैद्धान्तिक भी नहीं हैं! ये सुनिश्चित सिद्धान्त पर आधारित प्रायौगिक भी हैं । प्रायौगिक भी हैं प्रायौगिक। जैसे दो भाग हाइड्रोजन और एक भाग आक्सीजन लीजिए । दुनिया के किसी भी देश में, दुनिया के किसी भी कोने में आप इसको विधान के अन्तर्गत मिलान कीजिए तो तीसरा पदार्थ बनकर तैयार होगा और वह क्या होगा--जल । हाइड्रोजन और आॅक्सीजन दोनों के समुचित मेल से जल की उत्पत्ति होती है जल की । यानी यह जब प्रयोग करेंगे-- हाइड्रोजन और आॅक्सीजन को ले करके समुचित रूप में इसके विधि-विधान के अनुसार इसका प्रयोग करेंगे तो जल की प्राप्ति होगी । इसलिये यह वैज्ञानिक पद्धति जो है, सही है कि हाइड्रोजन और आॅक्सीजन के संयुक्त रूप से जल तैयार होता है। ठीक इसी तरह से इन सद्ग्रन्थों में जड़ जगत्-शरीर, जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर-- ये सब सूत्रवत् भी हैं, प्रक्रियात्मक भी हैं, परिणाममूलक भी हैं और उपलब्धिमूलक भी हैं ! सूत्र भी है और परिभाषा भी है । इसकी प्रक्रिया-प्रयोग भी है। इसमें परिणाम भी है और उपलब्धियाँ भी हैं। कीजिये, उपाय भी हैं । सभी सद्ग्रन्थों में हैं । 
          श्रीविष्णुजी सतयुग में नारद व गरुड. को उपदेश दिये थे । आज भी आप उस उपदेश को उठाइये, उस सूत्र को देखिये जिस सूत्र को विष्णु जी ने लिया था। उस प्रयोग की पद्धति को अपनाइये जिसको श्री विष्णु जी महाराज ने नारद, गरुड़ के समक्ष प्रस्तुत किया था, रखा था और देखिये प्रयोग के पश्चात् कि परिणाम भी वही आ रहा है कि नहीं। उपलब्धियाँ भी वही हो रही हैं कि नहीं जो नारद और गरुड़ को हुई थीं। वही होगी वही । वैसा ही नहीं, वही । 
         श्रीरामजी त्रेता युग में लक्ष्मण, हनुमान, सेवरी आदि को जिस ज्ञान का उपदेश दिये थे, जिस सूत्र को, जिस प्रक्रिया को, जिस परिणाम को  इन उपलब्धियों के साथ जनाया-मिलाया-दिखाया-प्राप्त कराया था, आज भी आप उसी सूत्र को लीजिये । उसी प्रोसेस-प्रक्रिया से गुजरिये। निश्चित ही आपको वही परिणाम, वही उपलब्धियाँ जो लक्ष्मण जी को श्रीराम जी से उपलब्ध हुई थी, जो हनुमान जी को श्रीराम जी से उपलब्ध हुई थी, जो सेवरी को श्रीराम जी से उपलब्ध हुई थी, आपको भी आज भी वही उपलब्धि होगी । वही परिणाम आपके समक्ष प्रकट होंगे । 
        श्रीकृष्ण जी महाराज द्वापर युग में अर्जुन के समक्ष, उद्धव के समक्ष, गोपियों के समक्ष, मैत्रेय के समक्ष जिस ‘ज्ञान’ का उपदेश किये थे, जिस विराट का दर्शन कराये थे, आज भी आप उनके उस सूत्र को लीजिये । उनके उस पद्धति-प्रक्रिया को लीजिये । निश्चित ही वही परिणाम और वही उपलब्धियाँ आपको उपलब्ध होंगी  । आप-हम और क्या करते हैं ? कुछ नहीं । हमारा-आपका क्या विधान है ? कुछ नहीं । हमारे पास अपना क्या है ? कुछ नहीं । हम कितने बड़े जानकार हैं ? कुछ नहीं। फिर ये सब कैसे जनाये-दिखायेंगे ? बस उसी तत्त्वज्ञान से, भगवत् कृपा रही तो उसी तत्त्वज्ञान से । किससे ? जो वेद विहित है । जो सद्ग्रन्थों से युक्त है-- सद्ग्रन्थों से प्रमाणित है।  जिसे श्रीविष्णु जी ने जनाया था, जिसे श्रीराम जी ने जनाया था, जिसे श्रीकृष्ण जी ने जनाया था। आप जानिये, देखिये, जाँच-परख कीजिये कि वही है कि नहीं । वैसा ही नहीं, वही । वही । यदि वही हो तब तो आप इसे प्राप्त कीजिये । यदि वही न हो आप इसे अस्वीकार कर दीजिये। अस्वीकार ही नहीं, हो सके तो हमको दण्डित कराने का विधान भी अपनाइये, ताकि फिर कोई आ करके ऐसा मिथ्या प्रचार न कर सके । आप लोगों के समय को  बर्वाद न कर सके । इसलिए आप सभी सहजतापूर्वक जानने का कोशिश कीजिये सत्य को। उस सत्य को जो सदा-सर्वदा एकरूप रहा है। आज भी है और आगे भी रहने वाला है, चाहे सृष्टि रहे या न रहे । वह परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप जो भगवत्तत्त्वम् है, उसे रहना है । वो था, वो है और उसे रहना है। उसकी प्राप्ति जब तक नहीं होगी, मुक्ति-अमरता का बोध आपको तब तक नहीं मिल सकता । जब तक वह परमतत्त्वम् आपको नहीं मिलेगा, जब तक वह भगवत्तत्त्वम् आपको नहीं मिलेगा तब तक आप चाहें कि आपको मोक्ष मिल जाए, मुक्ति-अमरता मिल जाए-- यह कदापि सम्भव नहीं है । 
      ‘ज्ञान’ के वगैर,  ‘तत्त्वज्ञान’ के वगैर भगवान् नहीं मिल सकता। और भगवान् के वगैर मुक्ति-अमरता का बोध रूप मोक्ष नहीं मिल सकता । मोक्ष तभी मिलेगा, मुक्ति-अमरता का बोध तभी मिलेगा, जब भगवान् मिलेगा । भगवान् तभी मिलेगा जब ‘तत्त्वज्ञान दाता’ मिलेगा। ‘तत्त्वज्ञानदाता’ तभी मिलेगा जब तत्त्वदर्शी सत्पुरुष सन्त-महात्मा मिलेगा। जब तक तत्त्वदर्शी सन्त-महात्मा नहीं मिलेगा तब तक आपको ‘तत्त्वज्ञान’ नहीं मिलेगा और ‘तत्त्वज्ञान’ नहीं तो भगवान् नहीं । भगवान् नहीं तो फिर मुक्ति-अमरता का विधान नहीं ।  बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की ऽऽऽ जय !
       तो इस प्रकार से, सन्त की बड़ी विचित्र महिमा है । सन्त की पहचान भी बड़ी विचित्र है । सन्त की प्राप्ति सन्त से ही सम्भव है क्योंकि ‘‘अन्तेन सहितः सः सन्तः।’’ मुझे तो इतनी ही जानकारी है । हम कोई भाषा पढ़ाने नहीं आये हैं । हम इसकी यथार्थता बताने आये हैं । सत्यता को आपको जनाने और दिखाने आये हैं। उस सत्यता को जिसके विषय में बोल रहे हैं । ‘‘सन्त जो वास्तव में अन्तिम ‘सत्य’ के साथ हो, अन्तिम ‘सत्य’ के साथ सदा-सर्वदा ही रह रहा हो-- सन्त वास्तव में वही है । ‘‘वासुदेवं सर्वं इति’’ जिसका सब कुछ भगवान् ही हो । भीतर-बाहर, नीचे-ऊपर, पीछे-आगे--जिस शरीर विशेष का सबकुछ भगवान् ही हो, परमात्मा-परमेश्वर- परमब्रह्म ही हो, वास्तव में वही ‘सच्चा सन्त’ कहलाने का हकदार है । भगवान् को छोड़कर, परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म को छोड़कर जिसका कुछ भी संसार में हो, वास्तव में वह सन्त की परिभाषा में नहीं आ सकता।’’  सन्तों की बड़ी विचित्र महिमा है। वास्तव में सन्त मिल जाय तो भगवान् मिलने में देर नहीं होता है। भगवान् मिलने में  देर इसलिए होता है कि आपको सच्चा सन्त नहीं मिलता है। सच्चा सन्त मिल जाए फिर भगवान् के मिलने में देर नहीं । भगवान् के मिलने में देर केवल इसलिए है कि आपको सच्चा सन्त नहीं मिल रहा है। सच्चे सन्त की क्या परिभाषा है ? तुलसीदास जी एक बार इस परिभाषा को रखने लगे कि -- 
तन करि मन करि बचन करि काहू दूखत नाहिं । 
  तुलसी  ऐसे सन्त जन  राम रूप  जग माहिं  ।।
        तन करि, मन करि और बचन करि किसी को किसी प्रकार का दुःख न देता हो। तुलसीदास जी कहते हैं ऐसा जो सन्त है वह राम का ही रूप है जो संसार में विचरण कर रहा है । अब तो आप सभी को मिल गया होगा कि तन से, मन से और बचन से किसी को किसी प्रकार का तकलीफ न दे रहा हो। यह परिभाषा जब तुलसीदास जी दिये तो दुर्जनों को बहुत अच्छा मौका मिल गया । कहे कि अब सन्तों की बातों को जानने-बोलने से मुझे तकलीफ हो रहा है, आप सन्त कैसे कहला सकते हो ? आपके बचनों से तो हमको कष्ट हो रहा है; आप कैसे सन्त कहला सकते हो ? अब तो बड़ी विचित्रता आ गयी । एक तरफ ‘तन करि, मन करि, बचन करि काहू दूखत नाहि’  ये परिभाषा सन्त की आ गयी । अब दूसरी तरफ दुर्जनों का मिलना-जुलना ही बन्द, अब चाहते ही थे कोई सगूफा मिले । तुलसी जी झट परिभाषा में संशोधन किये । भाई आप समझे नहीं हमारी बात को । क्या है भाई, क्या है! तब तुलसीदास जी एक दूसरा दोहा रचे कि --
‘‘निज संगी निज सम करत, दुरजन मन दुःख दून ।
मलयाचल हैं सन्त जब, तुलसी दोष बिहून ।।’’
         अब गौर कीजिये --‘निज संगी’--जो सन्त के पास आता है, जो सन्त के संग रहता है। सन्त क्या करता है ? निज संगी अपने संग में आने वाले को, अपने साथ रहने वाले को अपने समान बनाता है अपने समान । अपने ही जैसा बनाना शुरू कर देता है । ‘‘निज संगी निज सम करत’’ जो सन्त के संग में आता है, जो संत के संग में रहता है, सन्त क्या करता है कि अपने ही समान उसको बना देता है । क्या बना देता है ? तो जिस प्रकार से सब कुछ भगवद्मय ही है सन्त का, सब कुछ भगवद्मय ही है। भगवान् से अलग सन्त नाम का कोई कुछ नहीं है । जो कुछ है सब भगवान् । अपने जिस भाव में सन्त है (भगवद् भाव में), आपको भी उसी भगवद् भाव में वह परिणत कर देता है । जब ऐसे भगवद् भाव में वह परिणत कर देता है, बना देता है तब होता क्या है ? ‘‘दुर्जन मन दुःख दून’’ दुर्जनों के मन का दुःख जो है दुगना बढ़ जाता है--दुगना हो जाता है । कैसे भाई ? दुर्जनों के मन का जो दुःख है दुगना बढ़ जाता है--दुगना हो जाता है । कैसे भाई ? जो उस व्यक्ति को दुर्जनता में रखे था, अब वह जब सज्जनता में बदल गया, सन्त के संग से तो उसकी विकृति भी बह-निकल करके कहाँ जाएगी ? अरे भइया ! एक कूड़ाखाना हो बगल में, आप अपने घर में झाड़ू-बहारू करके कूड़ा निकालेंगे तो कहाँ फेकेंगे ? कूड़ेखाने पर लेकर फेकेंगे। जहाँ कोई कूड़ाखाना होगा, कूड़ेदान होगा, झाड़ू-बहारू लगायेंगे तो कूड़ा जो निकलेगा कूड़ेखाना में ही फेकेंगे । विधान भी ऐसा ही कहता है । 
         तो सन्त पुरुष अपने पास आने वाले जो भी संगी उसका है वह उसके दुर्गुणों को, दुर्भावनाओं को, दुर्विचारों को जब साफ करता है, स्वच्छ बनाता है, उसको भगवद्मय जब बनाता है, सज्जन बनाता है तो वे दुर्गुण भाग करके कहाँ जाते हैं ? वे उसकी दुर्भावनाएँ-दुर्विचार कहाँ जाते हैं ? तो जो लोग सन्त की निन्दा करने में लगते हैं, उनके पास जाते हैं । वे सन्त की क्यों निन्दा करते हैं ? क्योंकि उनका समाज फूट गया, उनके समाज का एक व्यक्ति निकल गया और वह सन्त के सम्पर्क में चला गया । वह सन्त बन गया । सन्त की निन्दा करने वाले दुर्जन को इसका दो नुकसान हुआ। एक तो उनकी संख्या कम हुई और दूसरे उनका पर्दाफास होने का भय उनको हो गया कि अब हमारी दुर्जनता, अब हमारी जो दुर्भावना है, इसको वह क्या करेगा ? अब इसका पर्दाफास करेगा । तो दुर्जन ये सुन-सुन करके उसी को रोकना शुरू करते हैं । यानी उनके मन का दुःख दुगना हो जाता है । उस निन्दा के माध्यम से, उस विरोध के माध्यम से वह दुर्जनता उन्हीं में ही जाया करती है। जो सन्त की निन्दा, जो सन्त की आलोचना, जो मिथ्यात्त्व से युक्त किसी की निन्दा-शिकायत की जाय तो होता क्या है ? जिसकी निन्दा की जा रही है, यदि उसके पास कुछ कमी है तो उसी माध्यम से उनके (निन्दा करने वाले के) पास चली जाती है । इसलिये उसके मन का दुःख दुगना हो जाता है । अपना तो था ही था, उसका भी चला आया । सन्त की निन्दा और शिकायत करना शुरू करेंगे, जो दुर्जन होंगे तो यह जो निन्दा-शिकायत और मिथ्यात्त्व से युक्त है तो वह भी तो एक पाप है, वह भी तो एक दोष है, उस दोष का भी तो दुष्परिणाम उन पर जायेगा । अपने कमी को-- दुर्जनता को छिपाने के लिए जब हम दूसरे की निन्दा करेंगे, जब दूसरे की शिकायत करेंगे और वह निन्दा-शिकायत बिल्कुल मिथ्यात्त्व से युक्त जब होगी तो उसके दोष और उसके परिणाम हमारे पर तो आयेंगे ही आयेंगे और जब दोष, दुष्परिणाम-पाप आएँगे तो हमारा कष्ट, हमारा दुःख बढ़ेगा ही बढ़ेगा । और भी बढ़ता चला जाएगा । इसलिए तुलसीदास जी ने कहा --
निज संगी निज सम करत दुरजन  मन दुःख दून ।
मलयाचल हैं सन्त जब तुलसी दोष  बिहून ।। 
         मलयाचल हैं सन्त जन । भइया ! अपने सम्पर्क में आने वाले को सन्त अपने समान बना लेता है । इसमें उसका क्या दोष ? यह तो उसका स्वभाव है। मलयागिरि चन्दन है । पूर्व का हवा चल रहा हो, आप कोई लकड़ी उसके पास में रख दीजिये, दूर थोड़ा हट करके भी रखिये तो चन्दन उसको भी चन्दन जैसा सुगन्धित बना देगा । चन्दन के सम्पर्क में कोई लकड़ी रख दीजिये, वह लकड़ी भी चन्दन जैसा सुगन्धित हो जाएगी । इसमें मलयगिरि का क्या दोष ? उसी तरह से सन्त जो होता है, उस भगवान् के साथ होता है, भगवद्मय होता है और जो सन्त के साथ उठना-बैठना शुरू कर दिया, उसको सन्त भगवद्मय बना दिया, भगवद्मय रखना शुरू करा दिया, तो इसमें उसका क्या दोष ? जो खुद भगवद्मय है जो उसके पास उठेगा-बैठेगा, जो उसके साथ रहेगा-चलेगा वह भगवद्मय होगा ही होगा । वह भगवद्मय बनेगा ही बनेगा ।  इसमें  सन्त का क्या  दोष ?इसीलिये तुलसीदास जी ने कहा सन्त जो होता है सभी दोषों से परे होता है । ‘‘मलयाचल है सन्तजन तुलसी दोष विहीन ।’’ तुलसीदास जी कहते हैं सन्त मलयागिरि हैं, मलयागिरि  सभी दोषों से परे है । सन्त सभी दोषों से परे होता है। उसमें किसी भी प्रकार का दोषारोपण नहीं हो सकता । सन्त की महिमा गाते हुए तुलसीदास जी लिखते हैं --कोई गृहस्थ भक्त जो है जो भगवान श्रीराम का भक्त था, क्या कहता है--
"आजु धन्य मैं धन्य अति, जद्यपि सब बिधिहीन । 
निज जन जानि राम मोहि, सन्त समागम दीन ।।’’
       यानी क्या भक्त कहता है ? आज मैं धन्य हूँ और अति धन्य हूँ । क्यों धन्य हूँ   भाई ? हालांकि मैं तो सभी विधि-विधानों से हीन हूँ । भक्ति-सेवा, पूजा-आराधना आदि का कोई विधान मेरे पास नहीं है । सभी विधानों से हीन हूँ लेकिन इसके बावजूद भी मैं  धन्य हूँ, अति धन्य हूँ । क्यों भाई ? ‘‘निज जन जानि राम मोहि, सन्त समागम दीन।’’  रामजी जिसको अपनाजन समझते हैं, जिस पर कृपा करते हैं, केवल उसी को सन्त-मिलन होता है । केवल उसी को सन्त-मिलन कराते हैं । ऐसे ही तुलसीदास जी और एक जगह लिखे हैं कि--
‘‘सुत दारा अरु लक्ष्मी पापी घर भी होय ।
सन्त समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय ।।’’
     ये सुत-दारा और लक्ष्मी--ये सन्तान बेटा-बेटी, स्त्री, परिवार और लक्ष्मी-- धन-दौलत ये तो पापियों के घर भी होता है पापियों के घर भी । तुलसीदास जी कह रहे हैं कि ये पापियों के घर भी होता है। सन्त ज्ञानेश्वर से पूछिये तो  कहेंगे ‘पापियों के घर ही होता है।’  बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की -- जय ! पापियों के घर ही होता है। क्योंकि जिसको भगवान् ये देता है, अपने से जिसको दूर रखना होता है अथवा जिसकी परीक्षा में अभी कुछ जाँच बाकी होता है, उसी को ये सब दे करके भरमाने-फँसाने की कोशिश करता है । ये दे दो । जैसे कोई माँ है। अभी उसका बच्चा छोटा है । गोदी में है । दूध पीने वाला है। जब कोई काम करने जाना होता है तो उसको या तो कोई गुडि़या दे दिया--खिलौना दे दिया, दूध पीने वाली बोतल भी दे दिया । मुँह में धरा दिया और अपने काम में लग गयी । वह बच्चा समझ रहा है कि वह दूध माँ का ही पी रहा है । वह जो गुडि़या दे दिया, खेल रहा है उससे । बस उसी में फँस गया। माँ फ्री है । यदि उसमें नहीं फँसता तो माँ की गोदी में रहता। उस गुडि़या में उस दूध में फँस गया, माँ की गोदी से दूर हो गया। उसी तरह से यह एक माया जाल है--भ्रम जाल है। माया जाल--‘सुत-दारा और लक्ष्मी’--ये मायाजाल है--भ्रमजाल है। भगवान् क्या करता है ? जिस जीवात्मा को अपने को प्राप्त नहीं कराना होता है, डाल देता है उन लोगों के सामने मायाजाल। लो लो  इसी में फँसे-पड़े रहो। तुझे याद भी नहीं आयेगा भगवान्-परमात्मा। आत्मा तो याद ही नहीं पड़ेगा, तुझे जीव भी भूल जाएगा जीव भी । ये ऐसा माया जाल है सुत-दारा और लक्ष्मी वाला जो है ऐसा माया जाल है कि आप ईश्वर और परमेश्वर को तो भूल ही जाएंगे, आप आत्मा और परमात्मा को तो भूल ही जाएंगे, अपने जीव को जो आपका अपना रूप है, स्वरूप जीव-जीव, आप उसको भी भूल जाएंगे । ये ऐसा माया जाल है ।
      इसलिए तुलसीदास जी ने कहा--‘सन्त समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय’  सन्त समागम--सन्त के साथ उठना-बैठना होगा, सन्त का आपके सम्पर्क में आना-जाना और हरि कथा । जब सन्त का मिलन होगा, सन्त के साथ उठना-बैठना होगा, सन्त के साथ आना-जाना होगा तो निश्चित ही क्या मिलेगी ? हरि कथा मिलेगी। सन्त के पास इसके सिवाय कुछ है ही नहीं । हरि कथा मिलेगी। ये दो ही दुर्लभ हैं । दुर्लभ हैं दुर्लभ । ‘‘सन्त समागम हरि कथा’’ सन्त के साथ उठना-बैठना-रहना और हरि कथा वास्तव में जीवन के ये दोनों पहलू दुर्लभ हैं दुर्लभ। जब सन्त मिलेगा तो आपको अपना रूप भी जना देगा, अपना रूप भी पहचनवा देगा। इतना ही नहीं आपको भगवान् भी जना देगा, भगवान् को भी मिला देगा और जीव और परमेश्वर के बीच जो ईश्वर है, उसको भी जना-दिखा देगा । जीव और परमात्मा के बीच जो आत्मा है, उसको भी जना-दिखा देगा । जीव और परमब्रह्म के बीच जो ब्रह्म है, उसको भी जना-दिखा देगा । रूह और अल्लातऽला के बीच जो नूर है, उसे भी जना-दिखा देगा ।  सेल्फ एण्ड गाॅड के बीच जो सोल है, जो स्पिरिट है, उसको भी जना-दिखा देता है सन्त। वास्तव मेें वही सच्चा सन्त होता है। सन्त वास्तव में वही है जो यथार्थतः सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण रहस्यों को, सम्पूर्ण सद्ग्रन्थों के सम्पूर्ण रहस्यों को, जीव, ईश्वर और परमेश्वर के सम्पूर्ण रहस्यों को यथार्थतः जना दे । आपको मिला और दर्शन करा दे । आपको परिचय-पहचान  बोध करा दे। वही वास्तव में सच्चा सन्त होता है। 
      बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की ----- जय !