गंगा मन्दिर विराट सत्संग समारोह काशी
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बन्धुओं ! गंगा मन्दिर, विराट सत्संग एवं शंका-समाधान समारोह के अन्तर्गत सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द का सत्संग भगवत् कृपा विशेष से चलने लगा । सर्वप्रथम सत्संग के अन्तर्गत सत्संग का यथार्थतः अर्थ और भाव समझाते हुये सत्संग-महिमा को भगवद् जिज्ञासु श्रोता समाज के बीच शास्त्रीय उद्धरणों को प्रस्तुत करता हुआ जनाया-बताया-समझाया जाता है ताकि सर्वप्रथम लोग यह जान समझ सकें कि जीवन में सत्संग की कितनी आवश्यकता है, जीवन में सत्संग की कितनी अधिक महत्ता है । सत्संग को अधिक से अधिक सरल, अधिक से अधिक व्यावहारिक, अधिक से अधिक बोधगम्य रूप में उपनिषदों, रामायण, गीता, पुराण आदि का उद्धरण प्रस्तुत करते हुये भगवद् दर्शन सम्बन्धी जानकारी देते हुये लोगों को भाव विभोर करता हुआ दिन-प्रतिदिन सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द सत्संग के प्रति जिज्ञासु भगवद् भक्त श्रोताओं को आकर्षित करते रहे । श्रोताओं में आकर्षण तो देखा ही जाता शास्त्रीय-उद्धरणों का यथार्थतः भावपूर्ण अर्थ सुन जानकर दंग रह जाते क्योंकि शास्त्रों का अध्ययन स्वतः करते रहने वाले, शास्त्राध्यायी, शास्त्रपाठी, रामायणी आदि से शास्त्रों का अर्थ सुनते रहने वाले, जब उन्हीं वेद मन्त्रों, गीता-पुराण के श्लोकों, चैपाई-दोहों आदि का अर्थ-भाव आदि सन्त ज्ञानेश्वर से सुनते तो आश्चर्य में पड. जाते, दंग रह जाते, कि अरे ऐसा भी है ? अरे यह बात भी है ? आदि आदि । सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द सर्वप्रथम सत्संग का अर्थ-भाव तथा सत्संग के महिमा को जनाने के पश्चात् ढोंगी-आडम्बरी-पाखण्डियों का खुले शब्दों में पर्दाफास करता हुआ शास्त्रों के पढ़ने-समझने-समझाने के सम्बन्ध में कि वास्तव में शास्त्रों की उपयोगिता क्या है ? शास्त्रों का अर्थ भाव कौन जान सकता है ? कब जान सकता है ? कौन व्याख्या कर सकता है ? ढोंग-आडम्बर पाखण्ड वास्तव में हैं क्या चीज ? भगवद् जिज्ञासु को किस प्रकार भ्रमित करता हुआ ठगा जाता है ? झूठे गुरु कौन होते हैं तथा झूठे गुरु आदि का अन्ततः परिणाम क्या होता है ? सत्य-धर्म का पतन कैसे-कैसे होता है ? सत्य-धर्म के पतन के वास्तव में जिम्मेदार कौन होते हैं ? शैतानियत का अन्दरूनी रूप और दैवी बाह्य रुप का वास्तविक पर्दाफास आदि तथा धर्म का नकली चोला और मुखौटा पहनकर अधर्म को ही धर्म का रुप प्रचारित करने वाले का पर्दाफास तथा मिथ्याज्ञानाभिमानियों के मिथ्याज्ञानाभिमान को जनाना-बताना तथा उसके स्थान पर यथार्थतः तत्त्वज्ञान रूप भगवद् ज्ञान रूप सत्य ज्ञान का भाव जनाना-समझाना तथा शास्त्री विश्वसनीय पुष्ट प्रमाणों से प्रमाणित करते-कराते हुये श्री करपात्री, श्री शंकराचार्य गण, श्री सतपाल, श्री रजनीश, श्री रामशर्मा आदि के ढोंग, आडम्बर एवं पाखण्ड तथा मिथ्याज्ञानाभिमान को पृथक्-पृथक् रूप में जनाते-पर्दाफास करते हुये सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द ने यथार्थतः सत्य ज्ञान के अर्थ-भाव को जनाने लगे तो श्रोतागण सुन-सुन कर मन्त्र-मुग्ध हो जाते और बड़े ही सौभाग्य अपना मानते । सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द के द्वारा गंगा मन्दिर विराट सत्संग समारोह के अन्र्तगत दिया गया सत्संग एवं शंका-समाधान का संक्षिप्ततः रूपः-
सत्संगः- सद्भावी भगवद् जिज्ञासु बन्धुओं ! भगवत् कृपा विशेष से एवं बड़े ही सौभाग्य से आज आप हम सब लोग भगवद् ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान रूप सत्य ज्ञान हेतु एकत्रित हुये हैं, एक मात्र भगवदज्ञान रूप तत्त्वज्ञान रूप सत्य ज्ञान के लिए ही, बिल्कुल ही भगवद् ज्ञान के लिये, अन्य किसी भी बात को लेकर यहाँ पर कोई एकत्रित-उपस्थित नहीं हुआ है, यदि कोई उपस्थित हुआ हो, तो मैं सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द उन बड़े बन्धु से करबद्ध साग्रह निवेदन करुँगा कि वे अपना समय यहाँ पर व्यर्थ न गवाएँ क्योंकि इस सत्संग समारोह के अन्तर्गत जो कुछ भी जनाया-बताया जायेगा एक मात्र वह भगवद् ज्ञान ही होगा, जिसके अन्तर्गत भगवान्-खुदा-गाॅड की यथार्थतः जानकारी प्रत्यक्षतः दर्शन, स्पष्टतः बात-चीत करते कराते हुये पहचान तथा अद्वैतत्त्वबोध एवं मुक्ति और अमरता के बोध से सम्बन्धित जानकारी मात्र ही यहाँ पर दी जायेगी; अन्यथा कुछ नहीं; अन्यथा चाह वाले, अपना राह लें तो उनके लिए यह अच्छी सलाह ही होगी कि वे अपने समय का परवाह करें। इस प्रकार के भावों से युक्त जिज्ञासु बन्धुओं को अपने सत्संग के मूलभूत तथ्य से अवगत कराया जाता है, तत्पश्चात् सत्संग की बातें प्रारम्भ की जाती है कि- वास्तव में सत्संग का अर्थ- सत्य का संग ही होता है । और सत्य तक मात्र भगवान् ही है, भगवान के सिवाय अन्य कोई अथवा कुछ भी सत्य नहीं होता । क्योंकि शाश्वत् एकरूपता, अपरिवर्तनशीलता, मुक्त, अमरता, सर्वोच्चता, सर्वाेत्कृष्टता एवं सर्वोत्तमता-लक्षणों से युक्त जो है, वह ही सत्य; और सत्य ही भगवान्-खुदा-गाॅड है तथा एकमात्र उसी का संग-लाभ ही सत्संग है । ऐसे ही सत्संग को दूसरे शब्दों में यह भी रूप भी दिया जा सकता है- कि भगवान्-खुदा-गाॅड की यथार्थतः जानकारी प्रत्यक्षतः दर्शन, स्पष्टतः बात-चीत करता-कराता हुआ पहचान तत्पश्चात् उसका सम्पर्क कराकर उस भगवान्-खुदा-गाॅड से सम्बन्ध को जोड़-स्थापित करता हुआ एकमात्र उसी के सहारे उसी के शरणागत रहता हुआ अपने को पूर्णतः सर्वतो भावेन उसी के प्रति समर्पित-शरणागत कराने वाली सारी जानकारी ही सत्संग है, मगर आत्मा से नहीं, बल्कि परमात्मा से; ईश्वर से नहीं बल्कि परमेश्वर से; ब्रह्म से नहीं परमब्रह्म से; जीव-जीवात्मा से नहीं भगवान् से ही सम्बन्धित होने रहने-कराने वाली अशेष जानकारी ही सत्संग है, जिसके अन्तर्गत जीव-आत्मा; जीव-ब्रह्म; जीव-ईश्वर;रूह-नूर; सेल्फ-सोल आदि भी समाहित रहता है । अर्थात् सत्संग वह तात्त्विक जानकारी है जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण कर्म-काण्ड तथा सम्पूर्ण योग या आध्यात्मिक जानकारी अशेष रूप से भगवान् से-में ही बोध होवें । आप श्रोता बन्धुओं से मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द को यह बताना है कि सत्संग वास्तव में भगवद् ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान रूप सत्य ज्ञान का ही एक अंश (बाह्य) होता है । किसी भी सूरत में सत्संग के बगैर भगवद् दर्शन प्राप्ति एवं पहचान हो ही नहीं सकता है । भगवान् को प्राप्त करने, यथार्थतः जानने-समझने-पहचानने हेतु सत्संग एक अनिवार्यतः पहली सीड़ी है, जिसके बगैर भगवद् ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान रूप सत्य ज्ञान की प्राप्ति व पहचान हो ही नहीं सकता है; जब कभी भी भगवद् ज्ञान की प्राप्ति व पहचान होगी, तो एक मात्र सत्संग से ही; अन्यथा कदापि नहीं; कदापि नहीं । तत्त्वज्ञान मुख्यतः तीन भागों में विभाजित रहता है- जब तक तीनों भागों को ही उसी के विधान से जान-देख-पहचान तथा उसका पूर्णतः बोध प्राप्त नहीं कर करा लिया जाता है, तब तक भगवद् ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान रूप सत्य ज्ञान से उपलब्ध होने वाला लाभ-भगवद् प्राप्ति व पहचान, अद्वैत्तत्त्वबोध, परमगति, परमभाव, परमपद, परमशान्ति, परमानन्द, परमहंस, परमपे्रम, परमअर्थ, परमसत्य एवं सर्वथा परम-शाश्वत् परम तथा मुक्ति और अमरता की भी उपलब्धि नही हो सकती है; कदापि नहीं हो सकती है; कदापि नहीं हो सकती है । तत्त्वज्ञान रुप भगवद् ज्ञान रुप सत्य ज्ञान का ही पहला ही भाग या अंश सत्संग है, जिसके बगैर तीसरे भाग में पहुॅंचना तो दूर रहा, दूसरे भाग में भी नहीं पहुॅंचा जा सकता । अतः सत्संग पृथ्वी का प्रायः सबसे दुर्लभ पद्धति-विधान है, जिसको सही रुप भगवदावतार के सिवाय न तो कोई जानता ही है और न तो कोई जना ही सुना सकता है । सत्संग सुनाने का भी एकाधिकार रूप में भगवदावतार का ही है । भगवदवतार का ही है भगवदावतार के सिवाय सत्संग किसी भी अन्य को सुनाने-जनाने का अधिकार ही नहीं है क्योंकि भगवदावतार के सिवाय यथार्थतः भगवान को जानता ही कौन है कि भगवान् के सम्बन्ध में सत्संग करेगा? यह प्रायः समस्त धर्म सम्प्रदायों द्वारा भी सर्वमान्य एक मत है कि वास्तव में एकमात्र भगवान्-खुदा-गाॅड के सिवाय भगवान्--खुदा-गाॅड को कोई जानता ही नहीं, फिर जनाने की बात ही कहाँ ? जनाना भी आवश्यक होगा तो एकमात्र वह खुद ही अवतरित हाजिर-नाजिर होकर भगवदावतार रूप में ही जनायेगा । इस प्रकार भगवान्-खुदा-गाॅड को यथार्थतः सही रुप में जनाने वाला एकमात्र भगवान्-खुदा-गाॅड का ही अवतार रुप भगवदावतार ही होगा, दूसरा नहीं । अब आप श्रोता बन्धुओं को अवश्य ही जान समझ लेना चाहिये कि वास्तव में सत्संग कितना दुर्लभ होता है कि जब-जब भगवदावतार होगा, मात्र तब तब ही असल सत्संग भी मिलेगा, अन्यथा नहीं ।
केन्द्रीय कारा भागलपुर
19/12/1984 ई .
सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! सत्संग की मर्यादा का वर्णन यत्र-तत्र जो शास्त्रों में वर्णित है, वह सर्वथा सत्य एवं उचित ही है जिसमें से एक आध विश्वसनीय पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत किया जा रहा है कि- सत्संगति दुर्लभ संसारा । निमिष दण्डभरि एकह बारा ।। श्री तुलसी दास जी ने यह ठीक ही कहा है कि सत्संग संसार में ऐसा दुर्लभ चीज है कि वह क्षण भर मात्र के लिए एक बार भी दुर्लभता पूर्वक ही प्राप्त हो जाता है । ऐसा क्यों न हो ? जबकि भगवदावतार के सिवाय भगवान् को कोई जानता ही नहीं, तो भगवद् ज्ञान से सम्बन्धित जानकारी कौन दे सकता है अर्थात् कोई नहीं । जब देगा, तब वह ही भगवदावतार ही देगा, फिर सत्संग एक क्षण के लिये एक बार भी दुर्लभ क्यों न हो ? अवश्य ही दुर्लभ होगा । भगवान् भू-मण्डल पर- संसार में तो रहता नहीं, वह तो सदा-सर्वदा ही एकमात्र परम आकाश रुप परमधाम अमर लोक में ही रहता है, जो समय-समय पर बीतने और आने वाले प्रायः दो युगों के मध्य वाले संगम युग में ही भू-मण्डल पर अवतरित होता रहा है और पुनः भी हुआ है । महत्व है उसे यथार्थतः जानने की, प्रत्यक्षतः देखने की, स्पष्टतः बात-चीत करते-कराते हुये पहचान करने की, तत्पश्चात् सत्यतः होने-रहने पर अपना सर्वस्व ही सर्वतो भावेन ही उसके चरण-शरण में समर्पित करते हुये एकमात्र उसी के शरणागत हो जाने की, उसी के निर्देशन में अपने को ले चलने की, एकमात्र उसी के हाथों अपने जीवन की बागडोर सौंप देने की, तत्पश्चात् उसी के प्रति समर्पित रूप में अनन्य भाव से सेवा-भक्ति करने की आज मात्र आवश्यकता ही नहीं है अपितु अनिवार्यतः आवश्यक-आवश्यकता है । कहा भी है कि-भगति स्वतन्त्र एकल सुख खानी । बिनु सत्संग न पावहि प्रानी ।। अर्थात् संसार में जितने भी प्रकार के सुख हैं, भगति (भक्ति) समस्त सुखों की ही खानि हैै, समस्त सुखों की ही राशि है, समस्त सुख ही भक्ति से ही उत्पन्न होते हैं और संसार में विभिन्न रुपों में निखर कर उन-उन रुपों से प्राप्त होने वाले भासने लगते हैं । एक बार श्री रामचन्द्र जी अपने आमराई के बाग में बैठे थे, तो दरश-परश के जिज्ञासा से सनक-सनन्दन-सनातन और सनतकुमार जी चारों सन्त मुनीश श्री रामचन्द्र जी के पास आये, तो उनके स्वागतार्थ श्री रामचन्द्र जी महाराज ने कहा-उससे सत्संग की अक्षय मर्यादा-महत्ता का स्पष्टतः परिचय प्राप्त होता है, जो यथार्थतः सत्य ही है-
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा । तुम्हरे दरस जाहिं अद्य खीसा ।।
बडे. भाग्य पाइब सतसंगा । बिनहिं प्रयास होंहि भव भंगा ।।
श्री रामचन्द जी महाराज ने भी सत्संग की यथार्थतः उपलब्धि को बताया है कि सत्संग से बिना प्रयास के ही भव सागर से पार हो जाया जाता है । भव बन्धन भंग हो जाता है जिससे कि भव बन्धन में बंधा हुआ जीव मुक्त होता हुआ बिना प्रयत्न किये ही अमरता को भी प्राप्त हो जाता है क्योंकि जीव का जनम मरण (शरीर-छूटना) भव बन्धन के कारण ही लगा रहता है । जीव का यह भव बंधन जैसे ही भंग हो जाता है, कट जाता है, तब तुरन्त ही अपने को भव-मुक्त और अमरता का बोध प्राप्त करता हुआ सदा के लिये ही मुक्त हो जाता है ।
सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! श्री विष्णु जी महाराज ने भी अपने परम प्रिय सेवक गरुड. जी को ज्ञानोपदेश देते समय सत्संग और विवेक (ज्ञान) को ही दो आंख बताये थे तथा साथ ही यह भी कहे थे कि हे गरुड. ! जिसके पास ये दो आंखें- सत्संग और विवेक (ज्ञान) नहीं है, वह मानव आंख (भौतिक चमडी वाला) रहते हुये भी अन्धा है, तो फिर शास्त्र क्या देखेगा- सत्य कैसे देखेगा ? अर्थात् नहीं देख सकता है, कदापि नहीं देख सकता है । यदि आपको विश्वास न हो तो गरुड. पुराण अध्याय सोलह का श्लोक सत्तावन देखें तो यह उपरोक्त बात अक्षरशः सत्य समझ में आ जायेगा । देखें-
सत्संगश्च विवेकश्च निर्मलं नयनद्वयम् ।
यस्त नास्ति नरः सोऽन्धः कथं न स्यादमार्गगः ।।
इससे स्पष्ट हो जा रहा है कि जो भी मानव सत्संग और ज्ञान (विवेक) रुपी दोनों पवित्र नेत्रों से हीन होगा वह अन्धा होगा और कुमार्ग पर जायेगा ही । इसलिये कुमार्ग से बचने के लिये भी सत्संग और ज्ञान रुपी दोनों नेत्रों की प्राप्ति एक अनिवार्यतः आवश्यक आवश्यकता है । जिस प्रकार श्री विष्णु जी एवं श्री रामचन्द्र जी महाराज भी ने यत्र-तत्र सत्संग और ज्ञान की महिमा गाये-बताये-जनायें हैं, ठीक श्री कृष्ण जी महाराज उन से कम नहीं रहे हैं ।
श्रीकृष्ण जी महाराज ने भी उद्धव को उपदेश देते हुये स्पष्टतः कहा था कि हे उद्धव! जितना आसानी से मैं सत्संग से जानने-समझने प्राप्त करने-पहचानने में आता हूँ, उतना आसानी से जप, तप, दान, व्रत, वेदाध्ययन, शास्त्राध्ययन, तीर्थाटन, योग, सांख्य, यज्ञ, क्रिया आदि किसी भी चीज से जानने-समझने-प्राप्त करने-पहचानने में नहीं आता । इतना ही नहीं सच पूछो तो जिस किसी ने भी जब कभी भी और जहाँ कहीं भी जाना-देखा-समझा-पहचाना और प्राप्त किया है उस उसने भी उस-उस समय में भी, उस-उस स्थान पर ही एकमात्र सत्संग से ही प्राप्त किया, जाना, देखा-समझा-पहचाना तत्पश्चात् मेरे प्रति शरणागत होता हुआ मेरे तत्त्वरूप में प्रवेश पाता हुआ मेरे परमधाम को प्राप्त करता है । सत्संग के सिवाय कभी भी न तो मुझे किसी ने प्राप्त किया है और न तो कभी भी कोई प्राप्त कर ही सकता है आदि आदि ।
इस प्रकार का उपदेश श्री कृष्णचन्द्र जी महाराज ने उद्धव जी को दिया था जिसे कि श्री वेदव्यास जी ने श्रीमद्भागवत् महापुराण के अन्तर्गत ग्यारहवें स्कन्द के बारहवें अध्याय में पहले श्लोक से ही आप पूरा अन्तिम श्लोक तक ही जान-देख-समझ सकते हैं। इस प्रकार सत्संग के अर्थ भाव एवं सत्संग के महत्व को समझाते हुये- सन्त-महात्मा क्या है ? तथा संत-समागम के महत्ता को जनाया-समझाया था । शरीर व संसार के नश्वरता एवं माया जाल को बताते हुये सदानन्द ने आगे बताया ।
सृष्टि का सर्वोत्कृष्ट तन पाकर क्या किएः- सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! आप हम सभी को सम्पूर्ण सृष्टि की दुर्लभ एवं सर्वोच्च आकृति या योनि मनुष्य या मानव योनि भगवत् कृपा विशेष से प्राप्त हुआ- जन्म-जन्मान्तर के संचित कर्मों के पुण्य-पुंज के फलस्वरूप मनुष्य शरीर रूप देव दुर्लभ आकृति की प्राप्ति हुई जिसके अन्तर्गत सृष्टि के प्रायः सम्पूर्ण गुण-कला समाहित है, यहाँ तक सृष्टि के उत्पत्ति, संचालन एवं संहार के समस्त शक्ति-सामथ्र्य रूप भगवान्-खुदा-गाॅड की ही अपनी शक्ल-आकृति रूप देव दुर्लभ मनुष्य ही की, एकमात्र मनुष्य शरीर ही है जिसके माध्यम से मानव आत्म-कल्याण, अपना-उद्धार रूप आत्मोद्धार मुक्ति और अमरता को प्राप्त कर सकता है । अपने शरीर-परिवार के माध्यम से संसार में भरमे-भटके, फँसे-भुलाये, जकड़े ‘जीव’ को शरीर-परिवार के फँसान एवं जकड.न काटकर उद्धार यानी भव बन्धन काटकर आवागमन समाप्त करके सर्वथा अविनाशी अमरता रूप मुक्ति को प्राप्त करने-कराने की क्षमता-सामथ्र्य वाली मानव योनि पाकर आप क्या कर रहे हैं ? मात्र आहार-निद्रा-भय-मैथुन में ही रात-दिन, दिन-रात लगे रहकर जनम-करम-भोग-मरण; पुनः वही ही जनम-करम भोग-मरण जीव का तब तक चला करता रहता है, जब तक कि जीव भगवत् प्राप्ति करता हुआ स्वयं मुक्ति और अमरता रूप अद्वैत्तत्त्वम् बोध प्राप्त करता हुआ सर्वतोभावेन सर्वथा एवं सर्वदा अपने को भगवत्-चरण-शरण पूर्णतः समर्पण-शरणागत करता-होता-रहता हुआ भगवन्मय होता -रहता हुआ भगवद्भाव रूप परमभाव को प्राप्त नहीं हो जाता । अतः अन्ततः कभी न कभी जीव को मुक्त और अमर बनाना या होना ही पड़ेगा चाहे जब कभी भी हो। मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द को तो अजीब आश्चर्य हो रहा है कि बुद्धि और विवेक से युक्त मानव शरीर को पाकर भी मनुष्य कितना जड़ी एवं मूढ. हो गया है कि उसे अपने जीव तक को भी जानने-देखने-समझने-पहचानने की जरुरत-आवश्यकता महसूस नहीं होती, जबकि सारा करम-भोग-कामिनी-कांचन से प्राप्त हो रहा सुखोपभोग भी शरीर में जीव रहने तक ही सम्भव है । जीव द्वारा शरीर छोड.ते ही सम्पूर्ण मेरा-मेरा कहने-कहलाने वाला ही छूट जाता है, सारे हित-दाही जो शरीर के रक्षा-सहयोग-व्यवस्था में लगे रहते थे, वही सब के सब हित-दाही रक्षक-व्यवस्थापक ही उस शरीर को जला-गाड.-जल प्रवाह करके समाप्त कर देने वाले भक्षक बन जायेंगे । फिर मेरा-मेरा-मेरा सब समाप्त हो जायेगा, फिर तो यमदूत का कोड़ा जब जीव रूप सूक्ष्म शरीर पर पड़ेगा, तब समझ में आयेगा कि नहीं, नहीं, नहीं, मेरा कुछ नही, सब कुछ तेरा, मेरा कुछ नहीं, सब कुछ तेरा, मेरा कुछ नहीं, सब कुछ तेरा की रट लग जायेगा, जबकि सूक्ष्म शरीर रूप जीव पर कोड़ा सट-सट करेगा तो बार-बार ही रट लगेगा कि तेरा-तेरा, इधर अब तेरा-तेरा कहेंगे, उधर यमदूत कहेगा, जिस मेरा-मेरा में फंसे थे बुला उसे वह कहाँ हैं ।
सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! आज कल जैसा कि देखा जाता है कि शैतानियत के प्रभाव में आकर नास्तिकों को यह कहते हुये गौरव महशूस होने लगता है कि मैं आत्मा-परमात्मा को नहीं मानता, मैं भगवान्-खुदा-गाॅड को नहीं मानता; यह सब ढोंग है, यह सब आडम्बर और पाखण्ड है, यह सब कोरी कल्पना है, फरेब है, झूठा-भ्रम है, तो मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द का निश्चयता पूर्वक-दृढ.ता के साथ यह कहना है कि ऐसा मानने-कहने वाला शैतान प्रेरित शेैतान दूत ही है जो अपनी क्षुद्र मति-गति, निकृष्टता एवं बुद्धि हीनता के कारण ही वह ऐसा कहता-रहता है, जिस प्रकार गन्दे नाले में रहने वाला गन्दा कीड़ा-गन्दा नाली ही पसन्द करता है, स्वच्छ एवं शुद्ध-पवित्र गंगा जल उसे नहीं भाता, मिलने पर भी वह छटपटाने लगता है, ठीक वैसे ही ये नास्तिक, मिथ्याभिमानी जन भी होते हैं कि भोग-प्रवाह रूप गन्दे नाले में ही रहना दुःख-कष्ट सहना, आपत्ति-विपत्ति में हाय-हाय करना जानता है, मगर सभी सुखों की खान-रूप भगवद् भक्ति नहीं चाहता; कहीं भगवद् भक्त दिखायी भी देता है तो उससे डाह-द्वेष करता हुआ, जलने लगता है, बिना मतलब का आलोचना, निन्दा, विरोध यहाँ तक कि संघर्ष पर उतारु हो कर तंग करने कराने लगता है क्योंकि स्वयं तो करम-भोग में पड.कर दुःखित है ही दूसरे भगवद् भक्तों के शाश्वत् शान्ति और शाश्वत् आनन्द को देख-देख कर जला करता है, यही तो शैतानियत या असुरीपन या राक्षसी वृत्ति और कर्म है, और ये ही असुर-शैतान और शैतान-मण्डली के शैतान तथा राक्षस वंशीय दुष्ट मण्डली है । आत्मा,परमात्मा, ईश्वर-परमेश्वर, ब्रह्म-परमब्रह्म; जीव-शक्ति-भगवान् को जो जानता ही नहीं; जिसने कभी देखा ही नहीं, जिसको पता ही नहीं, यदि वह नहीं मानता है, उट-पटांग ही बोलता है, गलत और भ्रम ही कहता है, जाल और फरेब ही कहता है, आदि-आदि कुछ भी कहता है तो उसके कहने का महत्व क्या रहा ? अर्थात् कुछ नहीं । उससे एक ही प्रश्न करके उसी से यह कहवाकर कि वह जानता ही नहीं, उसके सारी बातें समाप्त की जा सकती है कि जब जिस विषय-वस्तु के सम्बन्ध में कुछ जानते ही नहीं हो तो उस विषय-वस्तु के सम्बन्ध में बोलने के हकदार हो ? तो उसे खुद ही कहना पड़ेगा कि नहीं, क्योंकि जिसके सम्बन्ध में जो कुछ जानता ही नहीं उसके सम्बन्ध में उसका बोलना ही व्यर्थ की बकवास है, एक निरा ही पागलपन है, नाजानकारी एवं नासमझदारी है, शैतान प्रेरित कुबुद्धि और कुभाव है, शैतानियत और दुष्टता प्रेरित दुर्भाव है जिसका लक्षण ही होता है असत्य-अधर्म का स्वीकार तथा सत्य-धर्म का इन्कार । वह मनुष्य शरीर या देह मेें ऊल्लू और चमगादड. वाला जीव भाव है जिसे सूरज जैसा भगवान नहीं सूझता ।
सद्भावी सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! मैं सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द आप से एक बात जानना चाहता हूँ कि- क्या शरीर ही सब कुछ है जिसकी रक्षा-व्यवस्था-पुष्टि हेतु आप रात-दिन, दिन-रात अथक परिश्रम करते हुये जनमते- करम-भोग-मरते रहते हैं ? क्या इस शरीर से पृथक कुछ नहीं है ? क्या जीव और आत्मा कुछ नहीं है ? क्या आत्मा और परमात्मा कुछ नहीं है ? क्या शरीर-परिवार-संसार ही सब कुछ है और जीव-आत्मा-परमात्मा कुछ नहीं है ? क्या शरीर-परिवार-संसार ही सब कुछ है और जीव, आत्मा, परमात्मा कुछ नहीं है । थोड़ा भी तो आप मनन-चिन्तन किया करें। थोड़ा भी तो आप सोचा-समझा करें कि शरीर क्या जीव के बगैर किसी काम का है ? थोड़ा भी दो मिनट भी तो यहाॅँ पर रुक कर सोचें मनन करें कि क्या जीव के बगैर शरीर किसी काम का है ? तो निश्चित ही आप को जवाब मिलेगा कि नहीं, जीव के बगैर शरीर किसी काम का नहीं, किसी भी काम की नहीं; शरीर से तथा शरीर का सारा करम और भोग तो शरीर में जीव रहने तक ही सम्भव है, जीव के बगैर शरीर ही तो मुर्दा है, मृतक है, डेड बाॅॅॅडी है, फिर वह किस काम की चाहे जितनी भी सुन्दर, हृष्ट-पुष्ट एवं स्वस्थ क्यों न हो, फिर भी व्यर्थ ही है । इस प्रकार जब मनन-चिन्तन किया जायेगा, तब पता चलेगा कि जिस शरीर के पीछे अपना सारा का सारा समय शक्ति-सामथ्र्य लगा-बझाकर समाप्त कर-करा दी जा रही है उसका वास्तव में दूरगामी कोई फल नहीं, कोई लाभ नहीं, कोई देव दुर्लभ मानव योनि की उपलब्धि नहीं, तो फिर मानव शरीर रूप सृष्टि के सर्वोत्कृष्ट आकृति एवं योनि को प्राप्त करने का फल क्या हुआ ? लाभ कहाँ गया - शमशान के भूत-प्रेत के पास ? आखिरकार आप इतनी महत्व पूर्ण मानव शरीर पाकर क्या हासिल किये ? इन प्रश्नों पर आप थोड़ा भी कभी विचार किये हैं, बुद्धि को लगाये हैं या व्यर्थ ही गंवा रहे हैं ? बन्धुओं यदि पद-प्राप्ति की ही लालसा हो तो परमपद के लिये क्यों नहीं तैयार हो रहे हो ? शान्ति की तलाश है तो परमशान्ति के लिये क्यों नहीं तैयार हो रहे हो ? यदि आनन्द की ही तलाश है तो क्यों नहीं परमआनन्द के लिए तैयार हो रहे हो, यदि स्वतन्त्रता का ही तलाश है तो क्यों नहीं सर्वथा मुक्त के लिये तैयार हो रहे हो ? यदि मरने से भय है ही तो क्यों नहीं अमरता के बोध के लिये तैयार हो रहे हो ? एक बात आप जरा सोचो तो सही कि-जो परिवार आप का अपना दिखायी दे रहा है, आप के शरीर का सबसे बड़ा हित-शुभचिन्तक वह है या आप के शरीर को जीवित और क्रियाशील रखने वाला जीव ? यदि आप मन्द बुद्धि के हो तो क्या मगर निश्चित ही यह बात समझ में आ ही जायेगी कि शरीर का सबसे पहले और सबसे बड़ा हित-शुभ-चिन्तक जीव ही है, जीव के बाद ही घर-परिवार-संसार आपका हित-दाही है। यदि जीव शरीर को छोड. दे तो शरीर को घर-परिवार घर में से निकाला तो क्या निकाला कि अपने गोद से भी निकाल कर शमशान तक पहुँचा देगा; भूत-प्रेत कहकर जीव को ठुकरा देगा । अरे अन्धे माया-मोहासक्त एवं मूढ़ अब भी तो चेत; भगवान् को देखो ।
सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द का आप से यह भी कहना है कि- आप अपने परिवार के लिये तो सब कुछ करने के लिये तैयार रहते हैं, करते-रहते हैं, अपने शरीर तक की परवाह नहीं करते हेैं । झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, लूट-पाट डकैती करते हैं, घूस लेते हैं, अपने प्रिय दोस्त मित्र-सम्पर्की से छल-कपट-फरेब करते हैं, जन मानस के विश्वास का विश्वासघात करते हैं- आदि आदि रात-दिन, दिन-रात दुर्भावों-दुर्विचारों, दुव्यवहारों एवं दुष्कर्मों में ग्रसित होकर लीन रहते हें, नाना प्रकार के कुत्सित षड.यन्त्रों में लगे हुये हैं- क्या आप यह सोचते हैं कि इसका कुपरिणाम आप को भुगतना नहीं पड़ेगा ? तो आप के अपने मनमाने ऐसा सोचने मात्र से ही यह मान लिया जाय कि इसका कुपरिणाम आपको भुगतना नहीं पड़ेगा, कभी नहीं, कदापि नहीं, यह मानने की बात ही नहीं है कि आपको इसका कुपरिणाम नहीं भुगतना पड़ेगा, आपको इसका कुपरिणाम भुगतना ही है, चाहे इस स्थूल शरीर से या इसके अन्तर्गत रहने वाले सूक्ष्म शरीर रुपी जीव शरीर से, भुगतना तो है ही, इसमें सन्देह ही नहीं है कि भुगतना न पडे. । गाड़ी-मोटर, बस,ट्रक, जीप, ट्रैक्टर, फैक्ट्री अथवा कोई साधन-यन्त्र अपने रास्ते या कार्य से पृथक कोई अन्य रास्ते या कार्य से प्रतिकूल दिशा या क्रम में करें तो गाड़ी की परेशानी से ड्राइवर या चालक को भी परेशानी होती है । जिस प्रकार किसी गाड़ी या यन्त्र को चलाने में गाड़ी के खराबी या परेशानी, ड्राइवर या यन्त्र चालक को ही होती है, ठीक करना-कराना चालक की जिम्मेदारी है, गाड़ी या यन्त्र को ठीक से रखना चालक के जिम्मे है क्योंकि गाड़ी की पूरी जिम्मेदारी अपने मालिक या संचालक के प्रति चालक की ही होती है । ठीक इसी प्रकार मानव शरीर भी एक चलता-फिरता चेतन-यऩ्त्र ही है जिसका चालक जीव है तथा संचालक एक मात्र परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रह्म या भगवान्-खुदा-गाॅड है । परमात्मा आत्मा के माध्यम से जीव को उत्पन्न कर शरीर का चालक नियुक्त करता है । चालक अपने मालिक का ही रहकर ठीक से गाड़ी को चलाकर जीवन यापन ठीक से चला सकता है, ठीक इसी प्रकार जीव भी भगवान् के प्रति उत्तरदायी होता है जीव ही शरीर के माध्यम से दुःख-सुख का भोग-भोगता है । कर्म करना तथा उसके अनुसार भोग-भोगना जीव का कार्य और भोग्य है । जीव तो मरता नहीं, वह तो मात्र शरीर छोड.ता है जिसको कि लोग मरना मान लेते हैं तो जो जीव शरीर छोड़ता है, आखिर वह शरीर छोड़कर कहीं जाता होगा या नहीं ? क्या आप लोगों ने इस सम्बन्ध में कभी सोचा-विचारा है कि जीव क्या है, शरीर में कहाँ रहता है ? शरीर छोड़ने पर कहाँ जाता है| मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द को आप बन्धुओं से एक ही बात पूछनी है कि शरीर से पृथक जीव कुछ है या नहीं ? यदि है तो शरीर छोड़ने पर जाता कहाँ है ? क्या इस पर आप लोगों ने कभी सोचा है ? क्यों सोचते नहीं हो कि कहाँ जाता है ? जहाँ जाता है, वहाँ पर कैसे रहना पड.ता है ? क्या ये घर-परिवार वाले जिसके लिये कि आप हर कुकर्म कर रहे हैं, पाप कर रहे हैं, आप का साथ देंगे ? पाप बांटने जायेंगे ? कभी नहीं पाप जढ़ी ? यदि चापलूसी वश कहता भी है, तो भी पाप नहीं बँटा सकता, फि उस परिवार के लिये कुकर्म-पाप क्यों ? पाप किया ही क्यों जाय ? कुकर्म से मिलने वाला लाभ तो प्रायः सब ही मिल जुलकर बांट-चुट कर खा पी-भोग लेगें, मगर पाप भोग आप को-जीव को अकेले ही मात्र अकेले ही भुगतना होगा । आप की जढ.ता एवं मूढ.ता वश नहीं मानने से पाप भोग-समाप्त नहीं हो जाता है, नहीं मानने वाले पर जब यमदूत का कोड़ा-सोटा गिरने लगता है तो जिस तरह डाकू बदमाश लोग थाना-पुलिस के हाथ में जब तक नहीं पड.ते हैं, अपने को बड़े मौज में समझते हैं जैसे कि कोई उन्हें रोकने टोकने वाला है ही नहीं, मगर जब पुलिस के हाथ पड. जाते हैं, पुलिस पकड. लेती है तो चोर डाकू, बदमाश को सब कुछ उगल देना पड.ता है, ठीक वैसे ही, बल्कि और ही असहनीय घटनाओं-यातनाओं के साथ जब यमदूत जीव को लेकर चलते हैं तो पापी जीव को सब कुछ स्वीकार करना पड. जाता है । अरे एवं मूढ़ ! चेत, चेत अब से भी चेत, चेत, चेत, अरे जढ़ी अब से भी चेत ।
सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! थोड़ा भी सोचे कि यदि आप का श्वाँस अभी-अभी बन्द हो जाय तो फिर आप का घर-परिवार, नौकरी-चाकरी, खेती-बारी कोई ही आप की रक्षा व्यवस्था कर लेगा ? कदापि नहीं कर पायेगा ? क्या आपने कभी भी यह सोचने की कोशिश किया है कि वास्तव में यह श्वाँस क्या चीज है ? कहाँ से आता है ? वह कौन है जो आप की इतनी सुध रखे हुये है, आप के प्रति इतना ख्याल रखे हुये है कि आप को शक्ति-चेतन-भाव से युक्त भरपूर श्वाँस देता रहता है जिससे कि आपकी शरीर क्रियाशील एवं गतिशील हो रही है । घर-परिवार हित-नात, दोस्त-मित्र, माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, बेटा-बेटी आदि सारे के सारे सम्बन्ध शरीर में जीव तथा शरीर से श्वाँस रहने तक ही सारा का सारा मेरा-मेरा रह पाता है, आगे या शरीर के छूट जाने पर सभी का मेरा-मेरा भाव भी उसी के साथ ही छूट जाता है, आप के साथ इसमें से कोई मेरा साथ नहीं देता, जबकि यह शारीरिक जीवन ही जीव के अपने मात्र रात्रि में देखे गये स्वप्न ही तो है, जिस प्रकार आप स्वप्न में देखते हैं कि एक घण्टे के स्वप्न के अन्तर्गत पूरा का पूरा जीवन ही सामान्यतः गुजरते हुये दिखायी दे देता है, ठीक उसी प्रकार ही जीव रूप सूक्ष्म शरीर का एक रात्रि का स्वप्न ही यह जीवन है। किसी एक शरीर में जीव का वास जीव के एक रात के देखे हुये स्वप्न के समान ही है । इस प्रकार स्वप्न से भी बदतर इस जीवन के पीछे अपने अगातम (भविष्य) को आप क्यों खराब कर रहे हैं ? आप परिवार के लिये तो सब कुछ करते-कराते हैं, जो कि आप स्वार्थी होते हैं, मगर जो सदा ही निःस्वार्थ भाव से स्वास रूपी जीवनी शक्ति को क्षण प्रति क्षण देता रहता है, उसके लिये भी आप कुछ करते हैं ? जो गर्भ में आप की रक्षा किया, अब श्वाँस दे रहा है क्या वह कुछ नहीं ?
सद्भावी सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! आप बन्धुओं को और गृहस्थ-पारिवारिक जन को जढ़ी एवं मूढ. कहने में मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द को भी अच्छा नहीं लगता, मगर करूँं क्या ? मैं सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द शाश्वत् सत्य सनातन धर्म का एकमात्र संस्थापक एवं प्रचारक-प्रसारक होने के कारण जो सत्य दिखायी पड़ता है, उसे मैं लिखने को, बोलने को मजबूर हूँ, इसलिये कटु होने के बावजूद भी सत्यता को देखते हुये मुझे आप बन्धुओं को माया-मोहासक्त-जढ़ी एवं मूढ़ आदि कहना पड. रहा है । आप लोगों को बुरा कहने से मेरा ओहदा नहीं बढ. जायेगा और न तो ऐसा कहने का मुझे शौक लगा है, सब के बाद एक बार फिर मैं बता दूँ कि एकमात्र सत्यता के कारण ही जिसमें कि आप का सुधार एवं उद्धार सन्निहित है, जिससे कि आपका परम कल्याण दिया हुआ है । डाॅक्टर मरीज को जहरीली इन्जेक्शन भी लगाता है तो उसका लक्ष्य आप के अन्दर के जहर को समाप्त करने के लिये होता है, कड़वी से कड़वी दवा देता है, तो वह आप को कष्ट देने के लिये नहीं, अपितु उसके अन्तर्गत छिपे हुये मर्ज-या बिमारी या कष्ट को कष्ट देता हुआ समाप्त करता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार शरीर का रक्षक-देखने-दवा करने वाला है, आवश्यक पड़ने पर कष्ट का विचार किये बगैर ही चीर-फाड़ भी करता है, ठीक उसी प्रकार सच्चा गुरु-सद्गुरु भी भगवद् जिज्ञासु को सत्य बात कहता-बताता ही है भले ही उसे कटु ही क्यों न लगे, भले ही बुरा क्यों न लगे, मगर सन्त-सद्गुरु सत्य बात कहता ही है क्योंकि सन्त-सद्गुरु आपके जीव का डाॅक्टर होता है । जीव के अन्दर यदि कैंसर रूप अहंकार हो जायेगा तो वह सन्त-सद्गुरु अहंकार को आपरेशन करके समाप्त करेगा ही आप को चाहे जितना भी कष्ट क्यों न हो क्योंकि भगवद् भक्ति में अहंकार कैंसर तथा काम-टीण्वी (छय) रोग के ही समान होता है । इसलिये सत्य बात से कष्ट भी होगा, तो भी सत्य कहना बन्द नहीं किया जायेगा क्योंकि वह कष्ट आप को नहीं हो रहा है, बल्कि आपके अन्दर शैतान रूप अहंकार को हो रहा है जिसको हर तरह से ठोकर मार-मार कर जगा-जगा कर समाप्त करना ही सन्त सद्गुरु का एक मात्र लक्ष्य कार्य होता है । इस प्रकार अब आप बन्धुओं को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द की आप से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है, सदानन्द तो मानव क्या समस्त प्राणिमात्र का ही परम हितेच्छु है, परम सुहृदय है, परम कल्याण कारक है, सारी सृष्टि में ही आप का सबसे समीपी है ।
सद्भावी सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! सम्पूर्ण सृष्टि की रचना परमप्रभु परमेश्वर या भगवान् के सकाश से महामाया या आदिशक्ति या मूल-प्रकृति सम्पूर्ण सृष्टि की रचना या उत्पन्न करती है । सम्पूर्ण सृष्टि की रचना हेतु भगवान् ने चेतन और जड. नामक दो मुख्य तत्त्वों को उत्पन्न किया जो प्रारम्भ में वह एक साथ ही ‘आत्म’ शब्द रूप में था, जो एक ज्योति से युक्त था । यही आत्म-ज्योति चेतन-जड़ दोनों का ही एक साथ संयुक्त रूप था जिसमें आत्म-चेतन का रूप लिया तथा ज्योति जड़ का । उत्पत्ति क्रम से आत्म-चेतन पहले तथा ज्योति बाद में जड़ हुआ, मगर सांसारिकता के अनुसार जड़-चेतन; जड़ से चेतन की ओर । इस प्रकार सारी सृष्टि ही जड़-चेतन दो के आपसी मेल से गुण-दोष रूपी दो पद्धतियों से रचित हुई है या उत्पन्न हुआ है । सम्पूर्ण स्थूल-दृश्यमान् जगत् तो जड़ में आता है और सूक्ष्म से भी आगे का कारण शरीर रूप चेतन-आत्मा है और जड़-चेतन दोनों में गुण-दोष मिलाकर सृष्टि उत्पत्ति-संचालन-संहार करने-कराने वाली आदि-शक्ति है और आदि शक्ति या महामाया के स्वामी या पति ही भगवान् है जो सर्वथा सर्वदा एक ही रहा हैै, एक ही है और एक ही रहेगा भी । इस प्रकार शरीर-सम्पत्ति या कामिनी-काँचन या व्यक्ति-वस्तु यानी शरीर-घर-परिवार और सम्पूर्ण संसार ही बाह्य रूप में जड़ रूप है तथा जीव-जीवात्मा-आत्मा ही मात्र चेतन में आता है और जड़-चेतन को संयुक्त रूप में बन्धन रूप में गुण-दोष है जिसके माध्यम से जड़-चेतन एक-दूसरे में बंधकर एक दूसरे के सहायक रूप में गतिशील एवं क्रियाशील होते हैं । जड़-चेतन तो सीधे भगवान् से उत्पन्न है, मगर गुण-दोष सीधे भगवान् से न उत्पन्न होकर बल्कि महामाया रूपा आदिशक्ति से उत्पन्न हुये हैं, यही कारण है कि भगवान् जब कभी भी भू-मण्डल पर अवतरित होकर भगवदावतार के माध्यम से अपना लक्ष्य-कार्य सम्पादन करता है, तो उसे गुण-दोष से सर्वथा-सर्वदा परे जाना-माना-जाता है, जो वास्तव में सत्य है । भगवदावतार सर्वदा ही सर्वथा ही गुण-दोषों से परे होता-रहता है । भगवदावतार पर गुण-दोष का आरोपण नहीें हो सकता है, यदि कोई करता भी है तो वह सर्वथा ही अनुचित है तथा आरोप लगाने वाला आगे चलकर भविष्य में लोक निन्दा का पात्र-बनता-होता है ।
जढ़ता- सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! आप सभी शरीर घर परिवार-संसाराभिमुखी माया-मोहासक्त लोगों को बार-बार जढ़ता एवं मूढ़ता कहने का भाव मुझ सन्त ज्ञानेश्वर का यह नहीं है कि आपसे हमारा बैर है या आप हमारे बैरी है । यह बिल्कुल ही सच बात है कि सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द का व्यक्तिगत तौर पर कोई बैरी नहीं है, मगर हाँ जो सत्य-धर्म-न्याय-नीति का यानी भगवद् विधान का बैरी है वह उस स्तर और सीमा तक निश्चित ही सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी का बैरी है ऐसे बैरियों से भी सदानन्द संघर्ष नहीं चाहता है, मगर नहीं मानने पर तो होगा ही । सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द का जढ़ता से अभिप्रायः जड़ताभिमुखी होने से है । मानव को शरीर-सम्पत्ति या कामिनी-काँचन के प्रति कभी भी झुकाव और रुझान नहीं होना चाहिये । मानव बुद्धि-विवेक युक्त सृष्टि के अन्तर्गत एक सर्वोत्कृष्ट प्राणी है- इसी को संक्षिप्ततः ऐसे भी कहा जा सकता है कि- ‘मानव बुद्धि-विवेक-युक्त एक सर्वोत्कृष्ट-प्राणी है, जिसे सम्पूर्ण सृष्टि सहित भगवान् को भी अपने वश में करने-कराने वाला भाव-सम्पदा प्राप्त है ।’ ऐसा बुद्धि-विवेक युक्त मानव जिसे भाव सम्पदा भी प्राप्त हो जिससे कि ब्रह्माण्ड तो ब्रह्माण्ड है- ब्रह्माण्ड-पति भगवान् भी वश में सहज ही हो जाया करता है, पाकर भी जो मनुष्य आत्मा और परमात्मा्; ईश्वर और परमेश्वर; ब्रह्म और परमब्रह्म; शिव (शंकर नहीं) और भगवान्; ह ्ँसो और आत्मतत्त्वम्; अध्यात्म और तत्त्वज्ञान; महात्मा और अवतारी (सत्पुरुष); गुरु और सद्गुरु; चिदानन्द और सच्चिदानन्द; सोल और गाॅड; नूर और अल्लातऽला; मुतशाबिह और हुरुफ मुकत्तआत; शान्ति और आनन्द तथा परमशान्ति और परमानन्द; चेतन और परमतत्त्वम्; ह ्ँसो और परमहंस; कल्याण और परम कल्याण; ज्योतिर्मय और भगवन्मय; ब्रह्मपद और मुक्ति एवं अमरपद; हृदय-गुफा या आज्ञा चक्र और परमआकाश रूप परमधाम या अमर लोक; योग-साधना या अध्यात्म साधना और तत्त्वज्ञान या भगवद् ज्ञान पद्धति या सत्य ज्ञान पद्धति; आध्यात्मिक और तात्त्विक; आत्मनिष्ठ या ब्रह्मनिष्ठ और तत्त्वनिष्ठ; आत्मज्ञानी या ब्रह्मज्ञानी और तत्त्वज्ञानी; अध्यात्म वेत्ता या आत्म वेत्ता और भगवत्तत्त्व वेत्ता या तत्त्ववेत्ता; सदा सर्वदा भू-मण्डल पर ही रहने वाले और सदा-सर्वदा परमआकाश रूप परमधाम में रहने वाले तथा युग-युग में लुप्त हुए शाश्वत् सत्य सनातन धर्म-संस्थापन हेतु अवतरित होने वाले को पृथक्-पृथक् रूप में अनुभूति परक और बोध रूप से जान-देख-समझ-पहचान तथा बात-चीत करते-कराते हुये त्याग और समर्पण के माध्यम से श्रद्धा एवं विश्वास और सर्वतोभावेन पूर्णतः समर्पण करता हुआ एकमात्र भगवद् शरणागत होता हुआ अपना कल्याण और आत्म कल्याण तथा समाज कल्याण न कर कराकर मात्र अपने शरीर-घर-परिवार एवं भौतिक संसार के ही रक्षा-व्यवस्था एवं विकास में अपना समय-शरीर क्षमता-भाव का प्रयोग करने के कारण ही माया-मोहासक्त जड़ी एवं मूढ. कहा जाता है कि आप अपने शरीर और घर-परिवार में इतना जकड. गये हैं कि परमात्मा आत्मा तो दूर रहे अपने जीव तक को भूल गये ।
केन्द्रीय कारा भागलपुर
20/12/1984 ई . .
सन्त-समागमः- गंगा मन्दिर, विराट सत्संग एवं शंका-समाधान समारोह के अन्तर्गत सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द ने अपना अगला सत्संग विषय सन्त समागम बताते हुये कहा कि- सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! आज आप हम सभी के बीच सन्त और सन्त-समागम क्या है ? तथा सन्त समागम की यथार्थतः महत्ता क्या है ? यह देखा जायेगा । आप बन्धुओं से एक बात बतला देना अनिवार्यतः आवश्यकता समझता हूँ कि प्रायः सम्पूर्ण धर्म-सम्प्रदायों के सम्पूर्ण धर्म-ग्रन्थ ही सन्त-समागम के महिमा से भरे पड़े हैं, परन्तु यहाँ पर हम सभी लोग संक्षिप्त से भी संक्षिप्त रूप में यहाँ पर देखा जायेगा ताकि कम से कम समय में अधिक से अधिक सारगर्भित बातों को ही जाना-समझा जा सके, विशेष व्यापक बनाने से यथार्थतः ग्रहणीय विषय को समझने में दिक्कत होने लगता है, इसलिये सारांशतः ही यहाॅंँ पर इस सन्त-समागम वाली बात ही कही जा रही है । आप इसे एकाग्र होकर ही जाने-समझे, अन्यथा समझना कठिन हो जायेगा ।
सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! सन्त का सामान्यतः अर्थ तो लोग भगवद् नाम कीर्तन-भजन-सन्यास रूप में करने वाले को, तपस्वी को, ब्रम्हचारी को, योगी-साधक-सिद्ध-महात्मा को, अध्यात्मवेत्ता को आदि आदि को से लगाया करते हैं, मगर वास्तव में यथार्थतः सन्त का भाव- ‘अन्तेन सहितः स सन्तः ।’ अर्थात् ‘अन्त सहित हो जो, वह ही सन्त है ।’ दूसरे शब्दों में जिस भगवत्ता से सम्पूर्ण सृष्टि या अखिल ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई हो, जिस भगवत्ता से सम्पूर्ण सृष्टि संचालित हो तथा अन्ततः जिस भगवत्ता में सम्पूर्ण सृष्टि लय-विलय कर जाती है, उस ही; एकमात्र उस ही भगवत्ता के यथार्थतः ज्ञान से युक्त रहता है, वास्तव में वह ही एकमात्र सन्त होता-रहता है । सन्त रूप में या तो खुद भगवान ही होता रहता है अथवा अनन्य भगवद् प्रेमी, अनन्य भगवद् सेवक, अनन्य भगवद् भक्त एवं अनन्य भगवद् ज्ञानी मात्र ही होता-रहता- आता है । वास्तव में देखा जाय, यथार्थतः देखा जाय तो कर्म-काण्डी ( मूर्ति पूजा और शास्त्र प्रधान) चाहे जितना जानकार और त्यागी क्यों न हो जाय मगर सन्त की श्रेणी में नहीं हो सकता है जब तक कि भगवद् ज्ञान रुप तत्त्वज्ञान रुप सत्य ज्ञान प्राप्त करके अपना सर्वस्व भगवद् धर्म संस्थापनार्थ सर्वतोभावेन समर्पित करता हुआ अनन्य श्रद्धा-विश्वास -निष्ठा-भक्ति के साथ भगवद् शरणागत होता हुआ सर्वथा भगवद् सेवा में लग नहीं जाता, सन्त कदापि नहीं हो सकता है; ठीक इसी प्रकार योगी-साधक- आध्यात्मिक महात्मा भी वास्तव में सन्त की श्रेणी में नहीं आ सकता- चाहे भले ही वह सम्पूर्ण अध्यात्म का जानकार ही क्यों न हो जाय । आध्यात्मिक भी जब तक भगवद् ज्ञान रुप तत्त्वज्ञान रुप सत्य ज्ञान को यथार्थतः प्राप्त करता हुआ अपना सर्वस्व उपरोक्त कर्म काण्डी के समान ही सर्वतोभावेन भगवद् अर्पण करता हुआ अनन्य प्रेम, अनन्य सेवा, अनन्य भक्ति भाव से एकमात्र भगवद् सेवार्थ भगवद् शरणागत होता हुआ भगवद् सेवा में अनन्य भाव से लग नहीं जाता, सन्त नहीं है ।
सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! सन्त-समागम इतना आसान नहीं होता जितना कि सामान्यतः दुनियां वाले जानते-समझते हैं । असलियत तो यह है कि सन्त धरती पर जल्दी मिलता नहीं, यदि युग-युग में मिलता भी है तो उसे लोग अपने अनुसार जानना-देखना-समझना-पहचानना शुरु करने-कराने लगते हैं जो उतना आसान नहीं। सन्त किसी के भी अनुसार नहीं होता, सिवाय एकमात्र भगवान् के । सन्त का भगवान के सिवाय न तो कोई अपना होता है और न ही कोई पराया । सब ही जो सन्त के पास आते हैं, सन्त उसे अपने ही समान बनाते हैं । सन्त की परिभाषा तुलसी दास जी भी बड़े ही अच्छे शब्दों में दिये हैं जो उन्हीं द्वारा विरचित वैराग्य संदीपनी में उल्लिखित है । उसे यहाँ भी देखें-
सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! सन्त-समागम इतना आसान नहीं होता जितना कि सामान्यतः दुनियां वाले जानते-समझते हैं । असलियत तो यह है कि सन्त धरती पर जल्दी मिलता नहीं, यदि युग-युग में मिलता भी है तो उसे लोग अपने अनुसार जानना-देखना-समझना-पहचानना शुरु करने-कराने लगते हैं जो उतना आसान नहीं। सन्त किसी के भी अनुसार नहीं होता, सिवाय एकमात्र भगवान् के । सन्त का भगवान के सिवाय न तो कोई अपना होता है और न ही कोई पराया । सब ही जो सन्त के पास आते हैं, सन्त उसे अपने ही समान बनाते हैं । सन्त की परिभाषा तुलसी दास जी भी बड़े ही अच्छे शब्दों में दिये हैं जो उन्हीं द्वारा विरचित वैराग्य संदीपनी में उल्लिखित है । उसे यहाँ भी देखें-
तन करि मन करि बचन करि काहू दूखत नांहि ।
तुलसी ऐसे सन्त जन राम रूप जग मांहि ।।
(वैराग्य संदीपनी)
अर्थातः- तन (शरीर) से, मन से और वचन (वाणी या बोली) से जो किसी को भी कष्ट नहीं देने देता है या किसी को भी दुःख नहीं देता है, तुलसी दास जी कहते कि ऐसे यदि कोई सन्त हो तो वह राम का ही साक्षात् रूप संसार में होता है अर्थात् संसार में ऐसा सन्त यदि है तो वह राम का ही रूप है ।
आप श्रोता बन्धुओं से यहाँ पर मैं एक बात और ही बताना उचित समझता हूँ कि दुनियां वालों को ऐसा देखा जाता है कि जब सन्त मिलने हेतु जाते हैं और दरश-परश करते हैं, तो बजाय कुछ हासिल करने के उल्टे सन्त का ही जाँच पड.ताल करना शुरु कर देते हैं । थोड़ा भी नहीं सोचते हैं कि उन्हें कितनी जानकारी है ? वे सन्त के पास किस बात के लिये आये हैं- जानने या जनाने । इतना ही नहीं; जाँच-पड़ताल परीक्षण के दौरान यदि सन्त उनकी जानकारी मात्र के अनुसार ही नहीं रहे, तब वह गलत, ढोंगी, पाखण्डी, आडम्बरी, ठग आदि प्रायः जितनी भी जानकारी होती -रहती है, वह सब ही उपाधि दे डालते हैं, यह भी नहीं सोचते हैं कि यह सभी उपाधियाँ दे ही रहे हैं तो औरों के लिये कुछ बाकी लगा रहे हैं या नहीं । अपने लिये तो एवं मूढ. तथा कामी एवं लोभी, क्रोधी एवं अहंकारी आदि की उपाधियाँ सुरक्षित रखें ही रहते हें, उसे वे सदा ही अपने लिये ही रखते हैं । यहाँ पर एक बात यह भी जरुरी है कि-यदि किसी को सन्त समागम हेतु जाना ही है तो स्वच्छ मन-भाव से ही जाना चाहिये । यदि आप स्वच्छ मन-भाव से सन्त-समागम हेतु जाना चाहते हैं तो सन्त कैसे हैं, यह भाव छोड.कर पहले अपने भाव को शुद्ध करके ही जाना चाहिये जैसे कि कहा गया है कि-
सन्त मिलन को चलिए, तज ममता अभिमान ।
जस-जस पग आगे बढ़े, कोटिन्ह यज्ञ समान ।।
अर्थात् सन्त से मिलने चलते समय यदि अपना ममता और अभिमान को त्याग करके सन्त दर्शन एवं मिलन हेतु जाते हैं तो जैसे-जैसे आप का कदम आगे बढ.ता है वह कोटि-कोटि यज्ञों के फल के बराबर ही होता है ।
सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! तुलसी दास जी ने जब सन्त की परिभाषा दिये कि-
तन करि मन करि बचन करि काहू दुखत नांहि । . . . . . . . . .।।
तुलसी दास जी के समझ मे यह बात भरपूर रूप में आ गयी कि इससे समाज में भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि सन्त भले ही किसी को दुःख-तकलीफ न देता हो, मगर सन्त के सत्य प्रधान क्रिया-कलाप, कार्य-व्यवहार धर्म (भगवद्) प्रधान, क्रिया कलाप कार्य व्यवहार देख-देखकर असत्य या मिथ्याचारी को तथा अधर्म या भ्रष्टाचारी को दुःख तकलीफ होता भी हो, तो यह दुःख या तकलीफ सन्त के तन-मन-वचन से किया हुआ नहीं माना जा सकता है । इसीलिये दूसरा दोहा भी लिख दिये कि इससे स्पष्ट हो जाय कि- सन्त सभी दोषों से हीन होता है-
निज संगी निज सम करत । दुरजन दुःख दून ।
मलयाचल हैं सन्त जब । तुलसी दोष बिहून ।।
अर्थात् सन्त के पास यदि कोई आता है रहने या उपदेश के लिये तो सन्त जिस ज्ञान से युक्त होता है, उसी से युक्त करता हुआ उस आगन्तुक को भी ठीक भगवद् ज्ञान से युक्त तथा वैराग्यवान बनाता हुआ अपने समान ही बना देना चाहता है, मगर जो दुष्ट प्रवृत्ति के होते हैं उनका उससे काफी दुःख होता है यानी जिज्ञासु का भी दुःख उन्हीं पर सवार हो जाता है यानी उनका दुःख दुगुना हो जाता है क्योंकि सन्त की आलोचना, निन्दा, विरोध, संघर्ष आदि का फल बहुत ही पापमय होता है जिससे वह निन्दक स्वतः ही नष्ट होने लगता है, सन्त सदा ही भगवद् भक्ति प्रसारक तथा सभी दोषों से हीन होता है । असलियत तो यह है कि जब भगवान् को मिलना होता है तब ही शुद्ध भाव वाले को सन्त की प्राप्ति होती है इसी बात को लंका में हनुमान जी के मिलने पर विभीषण जी ने ठीक ही कहा था कि- हे हनुमान ! अब मुझे विश्वास हो रहा है कि परमप्रभु मुझे अवश्य ही मिलेगा, अन्यथा आप का मिलन नहीं होता । प्रभु की मेरे पर कृपा नहीं होती तो आप जैसे सन्त मुझे नहीं मिलते। इसीलिए मुझे विश्वास हो रहा है कि भगवान् की कृपा मुझ पर है तभी आप मिले हैं-
अब मोहि भा भरोस हनुमन्ता ।
बिनु हरि कृपा मिलहिं नहीं सन्ता ।
इसी प्रकार सन्त की महिमा बताते हुये तुलसी दास जी ने ही वैराग्य संदीपनी में भी बताया है कि ‘भगवान जिसको अपना कृपा पात्र समझते हैं, मात्र उसी को ही सन्त मिलन भी होता है । भले ही कोई कुछ भी न जानता हो, मगर उसे सन्त मिल जाते हैं और सन्त से वह सन्त रूप में मिलता है तो भगवत् कृपा ही है । अन्यथा सन्त मिलता ही नहीं, मिलता भी तो आपको विश्वास ही नहीं होता, श्रद्धा ही नहीं होती, जिससे कि उचित लाभ नहीं मिल पाता ।’
आजु धन्य मैं धन्य अति, जद्यपि सब बिधि हीन ।
निज जन जानि राम मोहि, संत समागम दीन ||
इस प्रकार हम तो यहाॅंँ तक कहेंगे कि सन्त-समागम ही सबसे दुर्लभ
होता है ।
सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! संसार में वास्तव में सबसे पहले तो मानव जीवन ही दुर्लभ है जिसमें भी पुरुषत्व को पाना और ही दुर्लभ पुरुषत्व में भगवद् अनुकूलता यानी धार्मिकता तो उससे भी अधिक दुर्लभ, पुनः भगवद् अनुकूलता के भाव के साथ भी सन्त-समागम तो उससे भी दुर्लभतर होता है क्योंकि सन्त-समागम होने पर तो हरि चर्चा स्वाभाविक हो जाता है क्योंकि हरि ही तो सन्त का अपना भाव होता है यानी सन्त वास्तव में वह ही है जिसका भाव हर तरह से ही परम हो, भगवद् भाव ही, एकमात्र भगवद् भाव वाला ही सन्त होता है और परम भाव या भगवद् भाव वाला ही जब सन्त होगा तो निश्चित ही उसके बात-बात में ही भगवत्-चर्चा होगी, उसके प्रायः हर कार्य में ही उसे भगवत् कृपा विशेष ही होता हुआ दिखायी देगा, भगवत्-चर्चा या हरि चर्चा तो उसका अपना स्वभाव ही होता है । इसलिये यदि सन्त मिल गये तो भगवत् कथा पूछनी नहीं पड़ेगी, वह तो स्वभावतः होता ही रहता है । इसीलिये सन्त-समागम को ही दुर्लभ देखा और कहा जाता है । घर-परिवार तो प्रायः अधिसंख्यक के पास ही होता ही है । घर-परिवार-बाल-बच्चा-धन-सम्पत्ति आदि तो भगवान् खासकर उन्हीं जीवों को ही देता है कि जिनसे उसका हृदयंग प्रेम न हो, उसे ही ये सब माया जाल देकर फंसा दिया करता है कि जाओ उसी घर-परिवार-धन-सम्पत्ति में फँसे-रुझे रहो, न फुर्सत होगी, न नकली भजन करोगे, न परेशानी होगी । घर-परिवार-धन-सम्पत्ति तो प्रायः ऐसा देखा जाता है दुष्टों को ही अधिक मिलता रहता है, इसका कारण यही ही कि भगवान् उस जीव से प्रीति नहीं करना चाहता है जिसको कि घर-परिवार, धन-सम्पत्ति आदि की वृद्धि देता है । ठीक से देखा जायेगा, दूरगामी दृष्टि से देखा जायेगा तो निश्चित ही दिखायी देगा कि- वास्तव में भगवान् जिस पर खुश होता हेै, जिससे प्रसन्न होता है, सर्वप्रथम उसके धन-सम्पत्ति का हरण कर लेता है, पुनः उसका नौकरी-चाकरी छोड.वा देता है, तत्पश्चात् उसका बाल-बच्चा हरण कर लेता है । तत्पश्चात् उसे ऐसा बना देता है कि उससे सभी उसके हित-दाही उससे घृणा करने लगे, कोई ही उसे न पूछे, वह अपने को सर्वथा निःसहाय समझता हुआ भगवान् की पुकार करे और उसे तब भगवान अपना प्रिय बनाता-मानता हुआ अपने शरण-ग्रहण में स्वीकार कर उसे मुक्ति और अमरता प्रदान करता हुआ परमपद ही प्रदान करके शरीर रहते तो अपना सारुप्य और शरीर छोड.ते सायुज्य मुक्ति देता हुआ अपने परम आकाश रूप परमधाम में स्थान देता है । इसीलिये सन्त समागम को दुर्लभ बताया गया है कि सन्त-समागम होते ही भगवत् प्राप्ति होने लगती है- इसी से तुलसीदास ने ठीक ही कहा है-
सुत दारा अरु लक्ष्मी, पायीघर भी होय ।
सन्त-समागम हरिकथा, तुलसी दुर्लभ होय ।।
सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! सन्त समागम वास्तव में बिना पुण्य-पुंज के नहीं प्राप्त हो सकता है, साथ ही साथ सन्त-मिलन भगवत् कृपा विशेष जो पुण्य-पुंज बिना मिलना ही असम्भव बाता होता है । श्री राम जी की वाणी है कि-
पुण्य-पुंज बिनु मिलहिं न सन्ता ।
सत्संगति संसृति कर अन्ता ।।
सन्त का संग प्रायः जन्म-जन्मान्तर के अन्तिम जनम में ही प्राप्त हो जाता है जिससे कि भगवद् ज्ञान रुप तत्त्वज्ञान के माध्यम से मुक्ति और अमरता की प्राप्ति हो जाया करता है । फिर-फिर संसार में आवागमन रूप चक्कर में नहीं आना-जाना पड.ता है । इसी बात को श्री कृष्ण जी महाराज ने गीता में भी स्पष्टतः श्री मुख से कहा हेै कि-
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवःसर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।।
अर्थात्ः-बहुत-बहुत जन्मों के बाद जब अन्तिम जनम होता है, तब ही मेरा ज्ञानवान अनन्य भगवद् भक्त किसी को प्राप्त होता है । अपना सर्वस्व यानी सब कुछ भगवान् को ही मानने वाला महात्मा ही संसार में बहुत ही दुर्लभ होता है । सन्त-समागम की मर्यादा-महत्ता इतनी अधिक होती है, इतनी अधिक होती है, इतनी अधिक होती है कि उसका पूरा-पूरा उसका वर्णन हजार मुख वाले शेषनाग तथा स्वयं स्वरसती ही वर्णन करने लगे तब भी पार लगना मुश्किल होता है क्योंकि सब के पार रहने वाले भगवान् के साथ-भगवन्मय रहने वाला ही तो सन्त होता है । जब अन्त के साथ ही रहने वाला होता है व अन्त वाला ही जब सन्त होता है, फिर तो और कौन है (सिवाय भगवान् के) कि सन्त का अन्त पा जाय । सन्त का संग मुक्ति और अमरता को प्रदान करता हुआ अपवर्ग जो नरक-स्वर्ग से सर्वथा परे होता है को भी प्रदान कर देता है । इसी से श्री रामचन्द जी महाराज ने ही कहा है कि- ‘सन्त संग अपवर्ग करि कामी भव कर पन्थ ।’ सन्त-समागम अपवर्ग को प्राप्त कराने वाला होता है और माया-मोहासक्त शरीर-घर-परिवार में जकड़ा हुआ कामी पुरुषों का साथ तो भव-जाल में फंसाने वाला ही होता है । सन्त-समागम होते ही बिना प्रयास किए ही हरि-चर्चा या सत्संग की प्राप्ति हो जाती है जो भव जाल भंग हो जाता है या भव जाल कट जाता जिससे कि मुक्ति और अमरता की प्राप्ति सहज गति से प्राप्त हो जाया करता है । इसी मर्यादा को कायम रखते हुए ही श्री राम जी ने कहा था कि-
आजु धन्य मैं सुनहू मुनीसा । तुम्हरे दरस जाहि अद्य खीसा ।।
बड़े भाग्य पाइब सत्संगा । बिनहि प्रयास होंहि भव भंगा ।।
इसी प्रकार सन्त-समागम से प्राप्त हरि-चर्चा के सम्बन्ध में अपने प्रजा को उपदेश देते समय भी श्री रामचन्द्र जी ने बताया था कि जीवन मुक्त की भी यदि ध्यान में हो तो भी उसे छोड.कर हरि-चर्चा सुनना चाहिये देखें-
जीवन मुक्त ब्रह्मा पर, चरित सुनहिं तजि ध्यान ।
जो हरि कथाँ न करहिं रति, तिन्ह के हिय पाषान ।।
सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! सन्त-समागम और सत्संग की महिमा कोई क्या वर्णन करेगा । चाहे जितना भी महिमा गायी जाएगी, वह सूरज को दीपक दिखाने जैसा ही होता है । यहाॅंँ पर विषय की व्यापकता को देखता हुआ प्रायः अधिकांशतः हिस्से को काट-छोड.कर अन्ततः बतला दूँ कि सन्त सृष्टि का सर्वोच्च पद होता है, क्योंकि सन्त की महिमा उसके साथ रहने वाले सत्संग से इतनी ऊँची हो जाती है कि सन्त में सत्संग होने के कारण भगवान् को भी सन्त के ही साथ रहने में सन्तुष्टि होती है, क्योंकि सन्त ही एकमात्र भगवान् का अनन्य भक्ति-भाव वाला सत्य-धर्म संस्थापन तथा उसका प्रचार-प्रसार करने वाला कार्यकत्र्ता होता है । सन्त की महिमा में एक और दोहा यहाँ पर प्रस्तुत हो रहा है जिसे आप सुनने के साथ मनन-चिन्तन भी करें ताकि यथार्थतः लाभ मिल सके । देखें-
मुख देखत पातक हरे, परसत करम बिलाहि ।
बचन सुनत मन मोह गत, पूरब भाग मिलाहि ।।
वास्तव में यह बात अक्षरशः सत्य है कि सन्त के मुख दर्शन मात्र से ही तो सारा पातक ही हरण हो जाता है । सन्त के चरण-शरण में अपने को जब रख दिया जाता, तो समर्पण करने वाले का सम्पूर्ण कर्म ही बिला जाता है, यानी भूल कर समाप्त हो जाता है, तत्पश्चात् जब सन्त की वाणी-बचन सुना जाता है तो उस बचन से उसका मोह भाग जाता है और खास करके देखा जाय जो जीव और भगवान के बीच पर्दा या दूरी है तो वह मोह का ही है, यदि मोह को आदमी समाप्त कर दे तो इसमें सन्देह नहीं कि भगवत्-प्राप्ति न हो जाय; मोह ही सबसे बड़ा बाधक होता है और वही मोह सन्त के बचन सुनने मात्र से भाग जाता है, दूर हो जाता है । तत्पश्चात् उस शरणागत भगवद् जिज्ञासु को उसका पूर्व के जन्मों का तथा वर्तमान जन्म का भी यानी पहले का जितना भी संचित पुण्य रहता है, सभी को ही भगवत् कृपा से मिला देता है यानी सन्त अपने शरणागत भगवत् जिज्ञासु को भगवत् प्राप्ति कर-करा देता है । इस प्रकार सन्त शरणागत का सम्पूर्ण पातक (पाप) तो सन्त के मुख के दर्शन से हरण हो जाता है, शरणागत होने से कर्म समाप्त हो जाता है । वचन सुनने मात्र से मोह भाग जाता है । तत्पश्चात् सन्त सम्पूर्ण पूर्व के संचित पुण्य को भी मिला देता है । सन्त की महिमा सत्संग से है तथा सत्संग एकमात्र सन्त से ही सही रूप में होता है । वह भी किस सन्त से जो एकमात्र भगवत् प्राप्त और भगवद् शरणागत हो, वही सन्त सत्संग करने का हकदार होता है । इस प्रकार सन्त और सत्संग का एक दूसरे के साथ अन्योन्याश्रय सम्बन्ध होता है । सन्त से ही सत्संग की उत्पत्ति-प्रचार-प्रसार होता है तथा सत्संग से ही सन्त की महिमा अनुपम है । सन्त की महिमा बताते हुये नारद से श्री रामचन्द्रजी ने कहा था कि हे नारद सन्त की यथार्थतः महिमा शेष और सहस्त्र मुखी शेष और शारदा भी नहीं गा सकते हैं । सन्त एकमात्र भगवद् भाव या परमभाव वाला ही होता है । सन्त भगवदावतार का ही रूप है, मगर सन्त में नकली-बनावटी साधु नहीं, भगवद् ज्ञान प्राप्त ही सन्त है। सन्त की महिमा के सम्बन्ध में श्री कृष्ण जी ने उद्धव जी से भी गाया था । आप भी देखें-
उधो मुझे सन्त सदा अति प्यारे ।
जाकी महिमा वेद उचारे ।।टेक।।
मेरे कारण छोड. जगत् के भोग पदारथ सारे ।
निश दिन सेवा करत प्रेम से सब घर काज बिसारे ।। उधो0 ।।
मैं सन्तन के पीछे जाऊँ, जहँ-जहँ सन्त सिधारे ।
चरणन रज निज अंग लगाऊँ, सोधूं गात हमारे ।। उधो0 ।।
सन्त मिलें तब मैं मिल जाऊँ, सन्तन मुझसे प्यारे ।
बिन सत्संग मुझे नहिं पावें, कोटि जतन कर डारे ।। उधो0 ।।
जो सन्तन के सेवक जगत में सो मुझ सेवक भारे ।
ब्रह्मानन्द सन्त जन पल में सब भव बन्धन टारे ।। उधो0