सन्त महिमा

सन्त महिमा
     
      सद्भावी सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! आज हम-आप का क्या ही सौभाग्य है- वर्तमान घड़ी-बेला भी कितनी भाग्यशालिनी है- इस कम्यूनिटी हाल का भी अहो भाग्य है कि यहाँ पर आज हम-सभी, इसी घड़ी-बेला में भगवत् कृपा विशेष से भगवद् मिलन (दरश-परश एवं परिचय-पहचान) हेतु एकत्रित हुये हैं । बन्धुओं ! आप कथा-प्रवचन तो बहुत सुने होंगे- धर्म चर्चा भी बहुत सुने होंगे, मगर ऐसी धर्म चर्चा आप लोगोें को सुनने को कभी नहीं मिली होगी-कभी नहीं मिली होगी । आप पूछ सकते हैं कि क्या नहीं मिली होगी ? तो इसका जवाब यही है कि आज हम-आप-सभी एक ऐसे हरि चर्चा- एक ऐसे धर्म चर्चा- एक ऐसे सत्संग हेतु उपस्थित हुये हैं, एकत्रित हुये हैं जिसमें भगवद् दर्शन-मिलन एवं परिचय-पहचान करने की ही चर्चा करना-सुनना है, इसके सिवाय कुछ नहीं । केवल भगवद्ज्ञान या तत्त्वज्ञान-सत्यज्ञान क्या है ? इसी को जानने-जनाने हेतु ही आप सभी जिज्ञासु बन्धु एकत्रित हुये हैं । जब जन्म-जन्मान्तर का पुण्य इकट्ठा होता है तब जाकर कहीं सन्त मिलन होता है-वह भी किसको-उसी को जिस पर भगवान् की विशेष कृपा होती है- जिस पर भगवान् कृपा की बरसा करना चाहते हैं मात्र उसी को ही सन्त मिलाते हैं । सन्त का मिलना भगवत् कृपा विशेष के बगैर सम्भव ही नहीं है- मुमकिन ही नहीं है । जब हनुमान जी सीता खोज हेतु लंका गये थे और विभीषण से दरश-परश हुआ था, परिचय-पहचान हुआ था, उसी समय विभीषण ने हनुमान जी से कहा था कि- 
अब मोहि भा भरोस हनुमन्ता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ।।
    हे हनुमान जी ! अब मुझे भरोसा हो गया  कि परमप्रभु श्री राम जी हमें अवश्य मिलेंगे क्योंकि उनकी कृपा विशेष जिन पर होती है, सन्त उन्हीं को मिलते हैं । इसीलिये हे हनुमान जी ! मुझे भी अब विश्वास हो रहा है कि परमप्रभु हमें अब अवश्य मिलेंगे- जरुर मिलेंगे । नहीं तो आप जैसे भगवद् दूत संत हमें नहीं मिलते । हम अभागा, कपटी, कुटिल, कली, मूढ़, अहंकारी जीव हैं। हमको सन्त मिलन कहाँ ? मगर उदार प्रभु की उदारता, दयालु प्रभु की दयालुता की सीमा नहीं है कि मुझ पतित पर भी कृपा करके आप जैसे सन्त-महात्मा को सीता खोज का बहाना बनाकर मेरा उद्धार करने हेतु ही आप को यहाँ भेजा है । तुलसीदास जी ‘वैराग्य संदीपनी’ नामक अपनी पुस्तिका में भी इसी प्रसंग से काफी मिलता-जुलता एक दोहा बनाया है जिसमें की संत के समागम की और परमप्रभु के कृपा की बात कहा गया है- 
आज धन्य मैं धन्य जदपि सकल विधि हीन ।
निजजन जानि राम मोहि संत समागम दीनि ।।
      वैराग्य संदीपनी में तुलसी जी ने सन्त मिलन की बात स्पष्टतः बताते हुये कहा है कि- जिज्ञासु संत मिलन पर अपने भक्ति भाव को अभिव्यक्त करते हुये कह रहा है कि आज मैं धन्य हूँ और अति धन्य हूँ कि मुझे संत समागम मिला है, मैं धार्मिक क्रिया-कलाप धार्मिक विधि-विधान से बिल्कुल ही हीन हूँ- मैं तो धार्मिक विधि-विधान से बिल्कुल अनभिज्ञ-नाजानकार हूँ । सर्व साधन-साधनाहीन हूँ, फिर भी मुझे भगवान् श्रीरामचन्द्र जी महाराज ने संत समागम दिया है । मेरे परमप्रभु की महती कृपा हुई है, वे मुझे अपना सेवक-अपना निज आदमी जान-समझकर ही मुझे संत मिलन-संत समागम दिये हैं । आज तो मैं धन्य हो गया, अति धन्य हो गया । बन्धुओं इतना ही नहीं, संत दरश-परश की महत्ता-सन्त समागम- संत शरणागत महत्ता-संत बचन सुनने की महत्ता आदि को भी बताते हुये तुलसीदास ने कहा है कि- 
मुख देदीखत पातक हरे परसत करम बिलाहिं ।
बचन सुनत मन मोह गत पूरब भाग मिलाहिं ।।
      आप बन्धुओं के समक्ष मुझ संत ज्ञानेश्वर द्वारा संत महिमा का वर्णन कितना किया जायेगा, चाहे जितना भी किया जायेगा वह बहुत ही थोड़ा है । तुलसीदास जी द्वारा विचरित दोहे से ही आप जान-समझ सकते हैं जैसा कि यह दोहा वर्णित कर रहा है कि- सन्त सत्पुरुष का दर्शन करने-होने मात्र से श्रद्धालु जिज्ञासु दर्शनाभिलाषी का सारा पाप ही हरण हो जाता है, यह है सन्त मुख दर्शन की महत्ता, और जो कोई सन्त चरण-शरण में अपने को परस दिया-रख दिया-शरणागत होकर स्पर्श कर लिया, उसका तो सम्पूर्ण कर्म ही बिला जाता है-भाग जाता है-समाप्त हो जाता है, उस सम्पूर्ण कर्म ही गायब हो जाता है जिससे हि न रहेगा करम न बनेगा पाप-पुण्य और न बनेगा पाप-पुण्य न रहेगा बन्धन, पुनः न रहेगा बन्धन न होगा आवागमन । इतना ही नहीं आप बन्धुगण और आगे बढ़कर देखें तो आप को और ही स्पष्टता मिलेगी- बचन सुनत यानी संत की वाणी- संत का बचन सुनते ही- बचन सुनने मात्र से ही आप के मन का मोह ही भाग जाता है, तो बन्धुओं! जीवात्मा और परमात्मा के बीच जो भेद- जो दूरी- जो गोपनीयता आदि आभासित हो रहा है वह एकमात्र मोह ही के करते हैं । यदि मोह आप का छूठ जाय- यदि आप मोह-पाश से निकल जाय तो निःसन्देह आप को उस परम प्रभु का दरस-परस हो जाय । यह मोह ही है जो अपने पाश में आप सभी को जकड़े हुये हैं, जीव-जीवात्मा को जकड़े हुये हैं । यदि मोह-पाश से जीव-जीवात्मा निकलकर बाहर आ जाय, तो फिर उस जीव-जीवात्मा को और कौन है जो भगवद् दरस-परस से रोक दें ? अर्थात् और कोई रुकावट नहीं है, और वह मोह ही संत बचन- संत की वाणी सुनने मात्र से भाग जाता है, तब क्या होता है कि पूर्व का, यानी जन्म-जन्मान्तर का जो आप का पुण्य एकत्रित होता-रहता है, वह सब ही तुरन्त ही मिल जाता है-प्राप्त हो जाता है, उसे कोई रोक ही नहीं; सकता मिलना ही है । अर्थात् जिसके मुख का दर्शन मात्र से सारे पापों का हरण हो जाता है, जिसके चरण स्पर्श-चरण-शरण में शरणागत होने से सम्पूर्ण कर्म ही बिला जाता है- भाग कर छिप जाता है तथा जिसके बचन सुनने मात्र से मोह भाग जाता है और पूर्व के जन्म-जन्मान्तर का सम्पूर्ण एकत्रित भाग्य-पुण्यफल की प्राप्ति हो जाती है- तत्काल ही प्राप्त हो जाता है- वह होता है- वह है सन्त । 
        सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! सन्त की महिमा मुझ सन्त ज्ञानेश्वर से कितना कहा जा सकता है ? सन्त की महिमा अपार है, उसका कोई ही पार नहीं पा सकता । सन्त वाणी में किसी सन्त ने ठीक ही कहा है कि- ‘बारह बरस रहे सन्त की टोली, तब सीखे सन्त के एक ठिठोली ।’ यानी इस उक्ति-वाक्य के माध्यम से सन्त-महापुरुष की महिमा-गरिमा दर्शायी गयी है कि यदि आप शरणागत भाव में कम से कम बारह वर्ष तक सन्त की टोली में रहें, तब जाकर कहीं आप सन्त की एक ठिठोली यानी सन्त के एक खेल को-एक बोली को-एकबात-एककार्य को को सीख जान पायेंगे । आज की तरह आप महानुभावों के समान नहीं कि आये-गये किसी सन्त-सत्पुरुष के दर्शन के लिये दो-चार घड़ी-घण्टा ठहरे नहीं कि उतीन ही देर में सन्त की अनेकों गलतियाँ-अनेकानेक कमियाँ-अनेकानेक दोष-अनेकानेक खामियाँ देखने लगते हैं । लगता है कि वही देखने आये थे । वास्तविक तो यह है कि सन्त में कोई कमी, कोई दोष, कोई गलती खामी होता ही नहीं; उनकी अपनी कमियाँ-खामियाँ ही प्रकट होकर सन्त में उन्हें आभासित होने लगती है । सन्त के पास श्रद्धालु एवं जिज्ञासु भाव से तो आते-जाते नहीं, तो सत्यता कैसे जानें-समझें ?
     सद्भावी भगवद् जिज्ञासु बन्धुओं ! यहाँ पर एक बात बता देना आवश्यक समझ रहा हूँ वह यह कि सच्चा सन्त की पहचान क्या है ? सन्त कहते किसे  हैं ? सन्त है कौन ? हम कैसे समझें कि यह सन्त है ? संत की वास्तविक पहचान क्या है ? दाढ़ी, मूँछ, सिर का बाल आदि बढ़ा लेना, लंगोटी धारण  कर लेना, चन्दन टीका कर एवं नाना भाँति के माला और गेरुआ वस्त्र धारण कर लेने वाला मात्र ही सन्त है तथा सन्त लक्षण-पहचान यही सब है ?आदि जानने योग्य बातें हैं । भगवत् कृपा से तथा सद्ग्रन्थों से मुझ सन्त ज्ञानेश्वर को जहाँ तक  जानकारी है- जहाँ तक समझ है, आप बन्धुओं के समक्ष भगवत् कृपा से ही रखने का प्रयत्न कर रहा हूँ- ‘अन्तेन सहितः सः संतः ।’ अर्थात् ‘अन्त वाले (भगवान्) के साथ सदा-सर्वदा रहने वाला ही संत है ।’ मुझ सन्त ज्ञानेश्वर के कहन का तात्पर्य यह है कि जो सदा-सर्वदा हर समय-स्थान में- परमात्मा या भगवान्-खुदा-गाॅड के साथ रहने वाला अथवा हर हालत में हर समय-हर स्थिति-परिस्थिति में भगवान्-परमात्मा- खुदा-गाॅड जिसके सम्पर्क साथ में रहता-चलता हो वह ही सच्चा संत है । अथवा भगवद् ज्ञानरूप तत्त्वज्ञान रूप सत्य ज्ञानरूप परमज्ञान से युक्त होते-रहते हुये निरासक्त, निष्काम, निरपेक्ष एवं निरभिमनता रूप में रहते हुये विरक्त तत्त्वज्ञानी सत्पुरुष ही सच्चा संत है। पुनः जो भगवान्-खुदा-गाॅड को यथार्थतः तत्त्वज्ञान द्वारा जान-देख-पहचान कर एकमात्र उन्हीं के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित होता-रहता हुआ अपना सर्वस्व तन-मन-धन आदि को भगवत् प्राप्तार्थ ही अनन्य सेवा-भक्ति एवं अनन्य प्रेमभाव से संसार से विरक्त तथा भगवान् में अनुक्त रहने वाला भगवद् सेवा-भक्ति का प्रचारक ही भगवान् का सर्वप्रिय सन्त है । श्रीकृष्ण जी में एक भजन के माध्यम से भी संत के सम्बन्ध में बड़ी ही अच्छी जानकारी दी है । आप भी जानें-देखें- 
ऊधो मुझे संत सदा अति प्यारे 
जाकि महिमा वेद उचारे ।। टेक ।। ऊधों ।।
मेरे कारण छोड़ जगत के भोग पदारथ सारे । 
निशदिन ध्यान धरें हिरदे में सब घर काज बिसारे ।। ऊधों ।।
मैं संतन के पीछे जाऊ जहँ-जहँ संत सिधारे ।
चरणन रज निज लगाऊँ सोधुँ गात हमारे ।। ऊधों ।।
संत मिले तब मैं मिल जाऊ संतन मुझसे न्यारे ।
बिन सत्संग मुझे नहिं पावे कोटि जतन कर डारे ।। ऊधों ।।
जो संतन के सेवक जग में सो मुझ सेवक भारे ।
ब्रह्मानन्द संतजन पल में सब भवबंधन टारे ।। ऊधों ।।
       ब्रह्मानन्द जी ने श्रीकृष्ण जी की वाणी को जैसा यथार्थतः दिया है कि क्या कहना ! प्रस्तुत भजन को जरा गौर तो करें- थोड़ा भी इस भजन पर चिंतन-मनन तो करें, तब देखें कि श्री कृष्ण जी महाराज ने स्वयं श्रीमुख से संत-महिमा के सम्बन्ध में जो कुछ भी कहा है- इससे उनका अपना संत-प्रेम-संतों के प्रति भाव-प्यार का परिचय हो रहा है कि भगवान् के पूर्णावतार होते हुये भी श्रीकृष्णजी ने अपने संतजनों के प्रति अपना दिल खोलकर गरिमा दिया है- यश-महत्ता दिया है । क्या ही कमाल की है, दयालु की दयालुता की अपने संतजनों की मर्यादा को बढ़ाने के लिये अपने मर्यादा के प्रति रत्ती भर भी विचार नहीं किये और दे डाले सारी मर्यादायें संतों को कि मैं उनके पीछे-पीछे इसलिये घूमता रहता हूँ कि उनका चरण रज मेरे शरीर पर- सिर पर पड़े और मैं पवित्र हो जाऊँ, मेरा पाप धुल जाय । क्या बचा अब भगवान् के पास कि अब उसे भी दें- सब कुछ तो दे दिया वह है संत । संत जिस प्रकार अपने भाव-सम्पदा का समर्पण करके सब कुछ प्राप्त कर लिया- आप भी करें । 
     सद्भावी सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! सन्त महिमा जानने के लिये सन्त किसे कहते हैं, सर्वप्रथम इसे जानना आवश्यक होता है । इसीलिये संत तुलसीदास जी की वाणी वैराग्य संदीपनी से देंखें-गहन मनन-चिन्तन करते हुये इसे जानने-समझने का प्रयत्न करें- 
तन करि मन करि बचन करि काहू दूखत नाहि ।
तुलसी ऐसे सन्त जन राम रूप जग माहिं ।।
अर्थात् तन से, मन से और वाणी से जो किसी को भी किसी प्रकार दुःख नहीं देता- कष्ट नहीं पहुँचाता है, तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसे (लक्षणों से युक्त) जो सन्त होंगे, वे जगत् में-संसार में राम के रूप में ही विचरते-रहते-भ्रमण करते हैं । अर्थात् तन से यानी शारीरिक रूप से-अपने शरीर से जो किसी को भी कष्ट नहीं देता हो; तो बन्धुओं ! अब यहाँ पर गहन मनन-चिन्तन की आवश्यकता है कि सन्त वह है जो अपने तन से किसी भी दूसरे कोई कष्ट न देता हो मगर संत के सदाचार-सद्भाव, सद्व्यवहार एवं सुकर्म से क्षुब्ध होकर कोई दुर्जन-कोई दुष्ट व्यक्ति संत से सत्पुरुष से टकराता-संघर्ष करता है जिसके प्रतिकार रूप में यदि उस दुर्जन को - उस दुष्ट को कोई दुःख होता है-कोई कष्ट पहुँचता है तो उसका वह जिम्मेदार-वह संत उत्तरदायी होता है या नहीं ? ऐसे ही यदि कोई दुर्जन-दुर्विचारी-दुष्ट विचार वाला आदमी किसी संत से दुराग्रह-दुर्भावना रखता है और उसके अपने ही दुर्भावना का कोई प्रतिकार होता है-प्रतीकारात्मक दुःख होता है- कष्ट पहुँचता है तो उस दुःख-कष्ट का दायित्व उस संत पर जायेगा या नहीं ? पुनः उसी प्रकार संत को कोई दुर्जन-दुष्ट दुष्टता पूर्व वचन बोलता-दुर्वचन बोलना, बार-बार समझाने-बुझाने पर  भी नहीं मानता-दुर्वचन बोलते ही जाता है जिसके प्रतिकार रूप उसे (दुर्जन को) कटु वचन-दुःखदायी बचन-कष्टदायी मिलता है तो संत दोषी होगा या नहीं ? बन्धुओं विचारणीय बात यह ही है, विचारणीय ही नहीं, बल्कि गहन विचारणीय बात है कि संत उन (तनसे-मन से एवं वाणी से) प्रतिकारात्मक दुःख-कष्ट के लिये क्या दोषी होता है ? तो बन्धुओं ! तुलसीदास जी ने ही उसी वैराग्य संदीपनी में ही लिखा है कि- 
निज संगी निज सम करत दुरजन मन दुःख दून ।
मलयाचल हैं संत जन तुलसी दोष विहून ।।
       अर्थात् निज संगी- जो संत के संग में रहेगा उसे संत अपने समान कर देता है- संत उसे अपने समान बना देता है- उसे भी सद्भावी, उसे भी सद्विचारी, उसे भी सद्व्यवहारी, उसे भी सदाचारी- उसे भी सत्कर्मी एवं उसे भी भगवद् समर्पित-शरणागत भगवद् भक्त ही बना देता है, संसार से वैरागी तथा भगवान् में अनुरागी बना देता है जिससे दुर्भावों, दुर्विचारी, दुव्र्यवहारी दुराचारी, दुष्कर्मी एवं भगवद् विरोधी नास्तिक सांसारिक दुष्टों के मन का दुःख जो है दुगुना हो जाता है- दुगुना बढ़ जाता है, तो इससे क्या संत दोषी हो जायेगा ? तो आगे अगली पंक्ति में ही-वहीं पर कहा गया है कि ‘मलयाचल हैं संत जन तुलसी दोष विहून’ अर्थात् संतजन मलयाचल चंदन (के समान) होता है कि वायु के अनुकूल दिशा में उस चंदन के बगल में कोई काठ (लकड़ी) रहेगा तो उसे भी वह सुगन्धित कर देता है- वह भी सुगन्धित है, ठीक उसी प्रकार जो संत का संग करता है वह भी संत ही जैसा हो जाता है । इसलिये तुलसीदास जी कहते हैं कि संत सदा-सर्वदा ही दोषहीन होता-रहता है, वह कभी भी दोषी नहीं होता-रहता । संत तो सदा-सर्वदा सभी दोषों से ही परे होता-रहता है । 
      सद्भावी भगवद् जिज्ञासु बन्धुओं ! संत समागम की महिमा और दुर्लभता बताते हुये संत तुलसीदास जी ने कहा है कि- 
सुत दारा अरु लक्ष्मी पापी घर भी होय ।
संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय ।।
     अर्थात् पुत्र-पुत्री परिवार-पत्नी, धन-दौलत आदि तो पापी के घर भी हुआ करता है इसलिये यह बहुत बड़़ी बात नहीं है- इसीलिये इसकी कोई खास मर्यादा नहीं है कि हमें तो कई-कई ठो पुत्र-पुत्री हैं, काफी सुन्दर पत्नी है, काफी अपार धन-सम्पदा है । हम बहुत ही भरे-पूरे घर-परिवार वाले है । हम काफी धन-दौलत वाले हैं । हम काफी सुखी-सम्पन्न हैं । हमको अब कोई परवाह नहीं है- कोई बात नहीं है । मगर श्रोता बन्धुओं ! मेरे समझ से सद्ग्रन्थों को देखने से एवं सत्पुरुषों-महापुरुषों की वाणियों को देखने से तो यही लग रहा है कि इन पुत्र-पुत्री घर-परिवार, धन-दौलत आदि सुखी-सम्पन्नता की कोई ही अहमियत नहीं है- कोई ही महत्ता नहीं है । महत्ता है संत समागम की- संत के साथ उठने-बैठने-रहने की एवं महत्ता है हरिकथा की-भगवत् कथा की । मर्यादा-महत्ता है हरि चर्चा-भगवत् चर्चा की-सत्संग की, जो संत समागम से ही हो सकता है, इसीलिये इन दोनों- संत समागम और हरि कथा- को ही तुलसी जी ने भी दुर्लभ ही बताया है । बन्धुओं ! असलियत तो यह है कि भगवान् की सारी दुर्लभता सच्चे संत की दुर्लभता पर ही निर्भर होता है यानी सच्चा संत ही दुर्लभ होता है । जैसे संत मिल जाते हैं वैसे ही यदि आप श्रद्धालु एवं भगवद् उत्कट जिज्ञासु हैं तो भगवान् को तो मिलना ही है- इसमें सन्देह ही नहीं- मिलना ही है निःसन्देह क्योंकि भगवत् कृपा विशेष से ही संत मिलन हो सकता है-होता है अन्यथा नहीं । साथ ही साथ संत मिलन हो ही और आप पर भगवत् कृपा नहीं, उससे संत की पहचान ही नहीं हो पायेगी-संत होते-रहते हुये भी उसे जानकारी-समझदारी नहीं हो पायेगी-विश्वास ही नहीं हो पायेगा कि यह संत है, जिसका कुपरिणाम यह होता है कि अपनी ही कमियाँ-अपने ही दोष उन्हें उन संत में आभासित होने लगता है- उन संत-सत्पुरुष में ही दिखायी देने लगता है जिससे संत के साथ ही साथ भगवान् से भी उनकी दूरी बढ़ने लगती है और जस-जस दूरी बढ़ता जाता है उनके अन्दर संत के प्रति दुर्भावना भी बढ़ती जाती है जिनमें से कुछ तो विद्रोही रूप अपना लेते हैं जिनमें कुछ पतिंगे की तरह नष्ट भी हो जाया करते हैं । अतः भगवत् कृपा से ही कुछ भी-सबकुछ ही सम्भव है । अतः सारी दुर्लभता संत की- जो कि भगवद्जन ही होते हैं- एकमात्र भगवद्जन ही । श्रीकृष्ण जी महाराज ने भी कहा है कि भगवान् को ही अपना सर्वस्व यानी कुछ ही मानने वाले संत-महात्मा ही दुर्लभ होते हैं । देखें- गीता से- 
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।।
         अर्थात् बहुत-बहुत जन्मों के बाद अन्तिम जन्म (आवागमन चक्र का अन्तिम जन्म) जब होता है तब कोई मनुष्य ज्ञानवान् होकर और मेरे शरणागत होता है । जिस ज्ञानवान् और वैराग्यवान् सन्त को-भगवद् शरणागत को एकमात्र भगवान् वासुदेव ही सर्वे-सर्वा, सब कुछ ही दिखायी दे-जिसे अपना और सारे जगत् का भी सर्वस्व सब कुछ एकमात्र भगवान् ही जानने-समझने-दिखायी देने में आवे- ऐसा महात्मा बहुत ही दुर्लभ होता है । आप बन्धुगण भी थोड़ा सोचें-मनन करें कि भगवदवतार श्रीकृष्ण जी ने भी जिसे बहुत दुर्लभ कहा है तो और की क्या बात ? जब खुद भगवदवतार ही दुर्लभ-सुदुर्लभ कह रहे हैं तो और कहे या न कहे-क्या फर्क पड़ता है । 
     सद्भावी श्रोता बन्धुओं ! श्री रामचन्द्रजी महाराज जो कि खुद-स्वयं परमप्रभु के ही पूर्णावतार थे, संत जनों की महिमा श्रीमुख से ही ऐसी गायी है-ऐसा कहा है कि सोचते-विचारते बनता है जैसे- 
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा ।  तुम्हरे दरस जाहि अद्य खीसा ।
बड़े भाग्य पाइब सतसंगा ।  बिनहिं प्रयास होहिं भवभंगा ।।
      श्रीरामचन्द्र जी अपने भाइयों सहित हनुमान जी के साथ अपने बाग में बैठे थे, उसी समय सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार जी वहाँ जिन्हें देखकर पास आये अतिथि का उचित आतिथ्य सत्कार प्रणाम पाती करते-कराते हुये ही उन मुनीश्वरों से कहा था कि हे मुनीश्वरों ! आज मैं धन्य हो गया-धन्य कि आप महानुभावों के दर्शन मात्र से ही अब मेरा सारा पाप चला जायेगा-भाग जायेगा-समाप्त हो जायेगा । अहो भाग्य है कि सत्संग मिलेगा-आज हमारा बड़ा ही भाग्य है कि क्योंकि मुझे सत्संग मिलेगा। मैं सत्संग पाऊँगा जिससे कि बिना प्रयास के ही-बिना परिश्रम के ही यह दुस्तर भवसागर पार हो जाऊँगा अर्थात् बिना प्रयास-परिश्रम के ही आवागमन चक्र भंग हो जायेगा-आवागमन समाप्त हो जायेगा । आप बन्धुओं से अधिक मैं क्या कहूँ ?संत मिलन होने पर सत्संग मिलना ही है क्योंकि सत्संग करना तो संत का सहज-स्वाभाविक ही होने वाला क्रिया-कलाप है । आप चाहे तो अथवा न चाहें तो भी यदि संत के संग होंगे-रहेंगे तो आपको सत्संग मिलना ही है । इसका एक प्रमुख कारण यह है कि संत का भगवान्-परमप्रभु के सिवाय अपना रक्षक-व्यवस्थापक, संचालक, चालक, निर्देशक-आदेशक, पोषक-नियन्त्रक आदि आदि और कोई कुछ होती ही नहीं। संत को अपना हर क्रिया-कलाप ही स्वयं उस परमप्रभु भगवन् द्वारा ही संचालित-चालित होते हुये दिखायी ही देता हैं खाना-पीना, सोना-जागना, उठना-बैठना, रुकना-चलना, कुछ करना-कुछ न करना आदि आदि सारी गति-विधि ही भगवान् द्वारा ही होते हुये दिखायी ही देता है । कभी-कभी तो संत ऐसे-ऐसे पेशोपेश-परेशानी में पड़ जाते हैं कि कोई वस्तु ग्रहण करना यानी खाने-पीने में ही होता दिखायी देने लगता है जो खा रहे हैं, वह भी हमारे परमप्रभु भगवान् का अंश ही है, जो पी रहे हैं, वह भी भगवान् का अंश ही है तो हे प्रभु ! हे परमप्रभु ! क्या हम आप का अंश ही खा-पी जायें - हे प्रभु !  प्रत्येक व्यक्ति-वस्तु में भी तो आप का ही प्रतिबिम्ब अंश है तो फिर हम क्या खायें, पीयें, कैसे खायें, पीयें ? परन्तु भगवान् की लीला का थाह भगवान् की लीला का पार कौन पा सकता है ? कोई नहीं । हाँ, उसके अनन्य प्रेमी, अनन्य सेवक तथा अपना भक्त ही वह भी उतना ही, जितना कि वे (भगवान्) जनाना-समझाना चाहेंगे जान-समझ पाता है । भगवान् संतों से भी लीला (खेल-तमाशा) (भ्रम-निवारण) (शंका-समाधान) आदि उत्पन्न और हल (समाधान) करते-कराते रहते हैं । उसी लीला के दौरान संतों को कभी-कभी उपर्युक्त खान-पान आदि सम्बन्ध भ्रम होता पुनः निवारण होता रहता कि खाने-पीने वाला भी तो अपने अंशों के माध्यम से वही है तो जब खाद्य एवं पेय पदार्थ भी अंशवत् वही है तो खाने-पीने वाला भी तो अंशवत् वहीं है । जब सब कुछ ही उसी का (भगवान् का) ही है और जब सबकुछ ही अंशवत् वह ही है तो वह जाने इसका काम जानें- हम कौन हैं कि सोचें-विचारे ? हम तो एक अहंकार हैं अन्यथा भगवान् का ही अंशवत् प्रतिबिम्ब अलग से कुछ नहीं । सब कुछ एकमात्र एक ही-एकमात्र एक ही से-एक ही में-सबकुछ है । संत भगवान् का ही अपना बाह्य प्राकट्य रूप तथा भगवान् संत का तात्त्विक रूप है मगर सब संत नहीं मात्र एक तत्त्वज्ञानदाता संत ही । 
      सद्भावी सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! संत महिमा को पूरे सृष्टि में ऐसा कोई नहीं है जो पूरी-पूरी गा सके-कह सके । संत मिलन जब तक पुण्यों की पूँजी इकट्ठी नहीं और भगवत् कृपा नहीं होता, तब तक कदापि नहीं होता । तुलसीदास जी ने ठीक ही लिखा जो कि श्रीरामजी की वाणी है कि- पुण्य पुंज बिनु मिलहि न संता । सतसंगति संसृति कर अंता।। बन्धुओं ! जैसा कि कहा गया है, ठीक वही बात यह चैपाई अथवा ठीक इस चैपाई की ही बात मुझ सन्त ज्ञानेश्वर द्वारा कहा गया है बल्कि श्रीरामचन्द्र जी ने इसी चैपाई के द्वार सत्संग की बात भी बता दिये हैं कि ‘जब तक पुण्य की पूँजी (राशि) एकत्रित नहीं होती, संत नहीं मिलते और जब संत नहीं मिलते, तो सत्संग नहीं मिलता और सत्संग मिले बगैर आवागमन रूपी संसार चक्र से आप को मुक्ति कदापि नहीं मिल सकती है ।’ सत्संग ही है जो संसृति यानी आवागमन रूपी संसार चक्र को मिटा सकता है- आवागमन चक्र का अन्त कर सकता है । इसी बात को ध्यान में रखते हुये ही संत-महिमा की महत्ता स्वयं-खुद भगवान् के पूर्णावतार रूप भी श्रीरामचन्द्र जी महान् उदारता देखिये कि अपने अनन्य सेवक-भक्त रूप संत जन की महिमागाते हुये स्वयं अपने से भी बड़ा महत्व- अपने से भी बड़ी मर्यादा प्रदान कर देते हैं। परमप्रभु के उदारता की भी कोई सीमा है ? कोई नहीं । इसीलिये तो वे असीम भी कहलाते हैं । परमप्रभु का प्रसाद रूपी भगवद्ज्ञान प्राप्त सेवक दास रूप संतों पर अपने अनन्य सेवकों पर कितना ही ख्याल रहता है कि क्या कहा  जाय । सेवरी को उपदेश देते हुये श्री राम जी ने यहाँ तक कह दिया कि- 
सप्तम् भगति मोहिमय जग देखा । 
मोंते संत अधिक करि लेखा ।।
      अर्थात् हे सेवरी ! नौधा भक्ति के अन्तर्गत सातवी भक्ति यह है कि सम्पूर्ण जगत् को मेरे मय देखें-भगवद्मय देखे तथा संतजन को मुझसे भी अधिक माने- पुनः यानी सारे संसार को तो मुझमय जाने-देखे-भगवद्मय जाने-देखें, मगर संत जन को- लेकिन संतों को तो मुझसे भी और ही अधिक लखे-जाने-माने-देखें । इतना ही नहीं     बन्धुओं ! श्रीरामजी ने तो सेबरी को इसी नवधा भक्ति का उपदेश देते हुये अपनी-भगवान् की प्रथम भक्ति के अन्तर्गत भगवत् कथा देखें कि- 
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा । 
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।
     अर्थात् पहली भक्ति- सर्वप्रथम भक्ति संत का संग करना-संत समागम करना तत्पश्चात् दूसरी भक्ति है मेरी कथा में-भगवत् कथा में रुचि होना- आनन्दित होना है । परमप्रभु के अवतार श्री रामचन्द्र जी और श्रीकृष्ण जी महाराज ने खुद ही श्रीमुख से जिन संतजनों की महिमा गायी है-संत जनों की महत्ता बतायी है, तो और कोई गाये या न गाये और कोई संतों की महिमा बताये या न बताये क्या हुआ ? नारद से तो श्रीरामचन्द्र जी ने ऐसा भी कहा है कि-
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते । 
कहि न सकहिं सारद श्रृति तेते ।।  ३/४५/४ ।।
   आप प्रस्तुत पंक्ति को- चैपाई को श्रीरामचरित मानस के अन्तर्गत अरण्य काण्ड के अंत में आप देख सकते हैं कि श्रीरामजी ने तेा श्रीमुख से ही कहा है कि हे मुनि ! सुनिये संतों में जितने गुन होते हैं उतने को तो स्वरसती और वेद भी नहीं कह सकते- और की बात ही क्या । अतः आप श्रोता महानुभावगण समझ सकते हैं कि संत कितने महान् और दुर्लभ होते हैं । 
      सद्भावी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! संत की महिमा आप बन्धुओं को क्या गाऊँ ? कितना गाऊँ ? कितना कहूँ ? गाने-कहने से जिसका पार ही न लग सके, फिर कितना कहा जाय ? संत महिमा चाहे जितना भी गाया-कहा जा रहा है, सब मिलकर भी मात्र वैसा ही है जैसा कि सूर्य के समक्ष उजाला हेतु दीप दिखाना । किसी संत ने ठीक ही कहा है कि- 
गगन मंडल के बीच झर झर झरे अंगार । 
     संत न होते जगत् में तो जल मरता संसार ।।
      प्रस्तुत कथन को गलत या झूठ तो नहीं ही समझें, अतिश्योक्तिपूर्ण या बढ़ा-चढ़ा कर कहा गया, बताया गया भी न समझें। यह बिल्कुल ही यथार्थ बात है कि जिस तरह चैबीसों घण्टा अनेकानेक ताराओं से अग्नि-पिण्ड तथा सूर्य की प्रचण्ड रोशनी संसार में आकाश के तरफ से आता-पड़ता-झरता रहता है निश्चित ही यह संसार जलकर नष्ट हो जाता- सारे प्राणी ही जलकर मरते- पेड़-पौधे जलकर खाक हो जाते, मगर हाँ, ऐसा हो तो कैसे हो, इसी जगत् में संत जो हैं- इसी संसार में संत जो हैं । हाँ, इसमें सन्देह नहीं कि यदि इस जगत् में-संसार में यदि सन्त न होते तो निश्चित ही यह सम्पूर्ण संसार ही-सारा जगत् ही जल मरता-जल कर खाक हो जाता-जल कर नष्ट हो जाता । इस दोहे से भी संत के महत्तर महिमा का स्पष्टतः संकेत मिल रहा है । 
          अन्ततः आप श्रोता बन्धुओं से यह एकबार पुनः बतला दूँ कि संत की महिमा अपार है जिसे वेद, शेष, स्वरसती, ब्रह्मा आदि की ही पार नहीं पा सकता । इसलिये आप बन्धुओं से मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द का साग्रह अनुरोध है कि बन्धुओं मानव जीवन का उद्देश्य रूप मानव जीवन का लक्ष्य रूप मुक्ति और अमरता अपनाकर परमशान्ति और परमआनन्द रूप परमप्रभु भगवान् का दर्शन, बात-चीत करते हुये परिचय-पहचान कराने वाले भगवद्ज्ञान रूप सत्यज्ञान को हासिल करना चाहते हैं- तत्त्वज्ञान को प्राप्त करना चाहते हैं, तो आप को तत्त्वज्ञानी संत की शरण में जाना ही होगा । अपना सर्वस्व (तन-मन-धन) जो असलियत में परमप्रभु का ही है, को परमप्रभु निष्कपटता पूर्वक सर्वतोभावेन पूर्णतः समर्पण करना ही होगा- त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयेत् ।’ हे गोविन्द ! हे परमप्रभु ! आप के ही वस्तु (तन-मन-धन) को आप को समर्पित करता हूँ । ऐसा करना और करना ही होगा । ऐसा कहते और करते हुये ही आप को तत्त्वदर्शी संत के शरण में जाना ही होगा । मोक्ष का मार्ग संत के पास ही होता है, सांसारिक के पास नहीं । स्वयं श्रीराम?
संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ ।
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ ।। 
श्रीरामायण//उ0का0/दोहा ३३ ।।
    श्रीरामचन्द्र महाराज सनकादि (सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार) से कहा है कि संत का संग ही अपवर्ग का- मोक्ष का देने वाला है- कामी, सांसारिक का नहीं। सांसारिक (कामी) का संग तो आवागमन रूप भवसागर गिराने-भरमाने-भटकाने वाला मार्ग होता है । सन्त, कवि, पण्डित, वेद, पुराण तथा (सभी) सद्ग्रन्थ ही ऐसा कहते हैं ।
संत मिलन को जाइए, तजि माया अभिमान ।
ज्यों-ज्यों पग आगे बढे,. कोटिन्ह यज्ञ समान ।। 
      सद्भावी सत्यान्वेषी भगवद् जिज्ञासु श्रोता बन्धुओं ! अब तो मैं संत-महिमा प्रकरण को यही पर बन्द करके सत्संग-महिमा प्रसंग को शुरु करने वाला था, मगर इस मेरे शरीर के वश की कोई बात तो है नहीं कि जो चाहे सो यह (सदानन्द वाली शरीर) कर-करा लें । सदानन्द वाली शरीर का अहं रूप जीव तो ‘आत्मतत्त्वम्’ शब्द रूप परमप्रभु में उसी दिन ही विलय हो गया जिस दिन कि उस आत्मतत्त्वम् मान-रूप परमतत्त्वम् का अवतरण हुआ था- प्राकट्य हुआ था अर्थात् सदानन्द वाला ‘मैं’ अब वह पूर्व के सदानन्द वाला ‘मैं’ न रहकर बल्कि अब पूर्णतः उस आत्मतत्त्वम् नाम-रूप वाला ‘मैं’ हो गया है क्योंकि पूर्व के सदानन्द वाले अहं रूप जीव रूप मैं की विसात ही कितना क्षमता ही कितना था कि उस आत्मतत्त्वम् शब्द रूप आत्मतत्त्वम् नाम-रूप परमात्मा वाले ‘मैं’ के समक्ष टिक सके- ठहर सकें । अतः सदानन्द वाले अहं रूप जीव रूप में तो उसी दिन उसी समय ही आत्मतत्त्वम् नाम रूप-शब्द रूप परमतत्त्वम् रूप परमप्रभु परमात्मा वाले मैं में विलय हो गया था- विलीन हो गया था और यह सदानन्द वाली शरीर एकमात्र इस आत्मतत्त्वम्रूप परमतत्त्वम् रूप परमप्रभु के लक्ष्यभूत कार्य सम्पादन हेतु आरक्षित होकर खुद उसी के द्वारा स्वयं ही उसी के द्वारा ही अधिगृहीत कर-ग्रहण कर- धारण करके कार्य चालन-संचालन हो रहा है यानी यह सदानन्द वाली शरीर एक उसी आत्मतत्त्वम् नाम-रूप परमतत्त्वम् रूप परमप्रभु की ही होकर उसी के द्वारा उसी का लक्ष्यभूत कार्य सम्पन्न रूप ‘सत्य सनातन धर्म’ संस्थापन रूपी कार्य में समयानुसार लग गयी है । अतः यह शरीर पूर्णतः आत्मतत्त्वम् रूप परमतत्त्वम् की है । 
    हाँ, तो बन्धुओं मैं कह रहा था कि सन्त-महिमा प्रकरण बन्द करके सत्संग-महिमा वाला अगला प्रारम्भ किया था क्योंकि आप अपने संकुचित एवं सीमित दायरे वाले मस्तिष्क से अपरम्पार संत महिमा को सुनते-सुनते अफना गये होंगे-व्याकुल हो गये होंगे-घबड़ा गये होंगे कि संत-महिमा का पुल ही बाँध दे रहे है। - संत महिमा का इतना अतिश्योक्ति अति बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन क्यों कर रहे हैं, अगला प्रकरण क्यों नहीं आरम्भ करते ? हाँ, तो यह ठीक ही है जिन बन्धुओं को ऐसा लग रहा होगा, तो इसमें उनका भी कोई दोष नहीं है क्योंकि उनके सीमित मस्तिष्क में जितना समझने की क्षमता होगी उतना तो उन्हें सत्य महसूस ही होगा, मगर समझदारी-क्षमता से आगे की-परे की बात सत्य होने पर भी वह असत्य-गलत-भ्रामक एवं अतिश्योक्ति पूर्ण लगेगा ही, मगर है सत्य । यहाँ पर एक बात और बता देना उचित समझूँगा कि भगवद् जिज्ञासु अथवा किसी सत्यान्वेषी को किसी  तत्त्वज्ञानी-तत्त्वदर्शी संत के यहाँ भगवद्ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान रूप सत्यज्ञान हेतु अथवा अन्य किसी भी लक्ष्य हेतु जायें-जाना चाहें तो किस रूप में जाना चाहिये ताकि उस संत से अभीष्ट लक्ष्य की उपलब्धि हो सके । कहीं ऐसा न हो जाय कि संत के यहाँ अशिष्ट रूप व्यवहार-आचरण से उपस्थित होकर अभीष्ट लक्ष्य रूप प्राप्ति से ही वंचित हो जाय अथवा लाभ के बजाय कोप भाजन ही बन जाना पड़े । इसलिये किसी भी संत के पास जाते समय अपने को शुद्ध चित्त-निष्कपट एवं निरभिमान भाव से ही जाना चाहिये । साथ ही साथ यह भी पहले ही सोच समझ लेना चाहिये कि संत-खासकर तत्त्वज्ञानी-तत्त्वदर्शी एवं तत्त्वज्ञानदाता संत ममता-मोह-अभिमान का कट्टर शत्रु होता है । इसलिये संत से मिलने जाते समय ममता-मोह एवं अभिमान को त्याग कर ही जाना चाहिये, अन्यथा अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति असम्भव ही हो जाता है । 
संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस